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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
लिये हमको शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका निरंतर अभ्यास करना चाहिये यही इस मुमुक्षु आत्माको परमानंदका देनेवाला है ।
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इसतरह त्यागने योग्य इन्द्रियजनित ज्ञानके कथन की मुख्यता करके चार गाथाओंसे तीसरा स्थल पूर्ण हुआ ||१८|
उत्थानिका - मागे कहते हैं कि अभेद नयसे पांच विशेपण महि केवलज्ञान ही सुखरूप है ।
जादं सयं समन्तं णाणमणतत्यवित्थिदं विमलं । रहिदं तु उग्गहादिहि सुहत्ति एयंतियं भणिदं ५९ जातं स्वयं समस्तं ज्ञानमनन्तार्थविस्तृतं विमले ।
रहितं तु अवग्रहादिभिः सुखमिति ऐकांतिकं भणितम् ॥५९॥ सामान्यार्थ - यह ज्ञान जो स्वयं ही पैदा हुआ है, पूर्ण है, अनन्त पदार्थों में फैला है, निर्मल है तथा अवग्रह आदिके क्रमसे रहित हैं नियमसे सुख रूप है ऐमा कहा गया है ।
अन्य साहिन विशेषार्थ - (गाणं ) यह केवलज्ञान' ( सयं मार्द ) स्वयमेव ही उत्पन्न हुआ है, (समतं ) परिपूर्ण है, ( अनंतस्थ वित्थिदं ) अनन्त पदार्थों में व्यापक है, (विम) संजय यदि मलोंसे रहित है, (उम्माहादिहि तु रहिदं ) अवग्रह, fer अवाय, धारणा आदिके क्रमसे रहित है । इस तरह पांच विशेषणोंसे गर्भित जो केवलज्ञान है वही ( एयंतियं ) नियम करके (सुहत्ति भणिदं) सुख है ऐसा कहा गया है ।'
भाव यह है कि यह केवलज्ञान पर पदार्थोंकी सहायता की अपेक्षा न करके चिदानन्दमई एक स्वभावरूप अपने ही डा