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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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त्मा एक उपादान कारण से उत्पन्न हुआ है इस लिये स्वयं पैदा हुआ है, सर्व शुद्ध आत्मा प्रदेशोंमें प्रगटा है इसलिये सम्पूर्ण है, अथवा सर्व ज्ञानके अविभाग परिच्छेद अर्थात् शक्तिके अंश उनसे परिपूर्ण है, सर्व आवरणके क्षय होने से पैदा होकर सर्व ज्ञेय पदार्थोंको जानता है इससे अनंत पदार्थ व्यापक है, संशय, विमोह विभ्रमसे रहित होकर व सुक्ष्म आदि पदार्थोंके नाननेमें अत्यन्त विशद होनेसे निर्मल है । तथा कमरूर इन्द्रियजनित ज्ञानके खेदके अभाव से अवग्रहादि रहित अक्रम है ऐसा यह पांच विशेषण सहित क्षायिकज्ञान अनाकुरुता लक्षणको रखनेवाले परमानन्दमई एक रूप पारमार्थिक सुखसे संज्ञा, लक्षण, प्रयोजन मादिकी अपेक्षासे भेदरूप होने पर भी निश्चयनयसे अभिन्न होनेसे पारमार्थिक या सचा स्वाभाविक सुख कहा जाता है यह अभिप्राय है ।
भावार्थ - इस गाथा में आचार्य ने बताया है कि नहीं निर्मक शुद्ध प्रत्यक्षज्ञान प्रगट हो जाता है वहीं नित्य विना किसी अन्तरके अपने ही शुद्ध आत्माका साक्षात् अवलोकन होता है । वैसा दर्शन तथा ज्ञान इस आत्माका उस समय तक अपने आपको नहीं होता है जब तक केवल दर्शनावरणीय तथा केवल ज्ञानावरणीयका उदय रहता है । केवलज्ञान होनेके पहले परोक्ष भाव श्रुतज्ञान रूप खसंवेदन ज्ञान होता है इस कारण केवलज्ञानीके जैसा साक्षात् अनुभव नहीं होता है। जब केवलज्ञानके प्रगट होनेसे आत्माका साक्षात्कार हो जाता है तब यह आत्मा अपने सर्व गुण विकास करता है-उन गुणोंमें सुखगुण प्रधान है