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२२२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । करनी चाहिये यह अभिप्राय है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्थने इंद्रियजनित ज्ञानकी असमर्थताको और भी स्पष्ट किया है कि इंद्रियननिज ज्ञान आत्माझा स्वाभाविक ज्ञान नहीं है अर्थात् जो जो पदार्थ इंद्रियोंके तथा मनके द्वारा जाने जाते हैं वे सब परोक्ष हैं अर्थात् मात्माके साक्षात् स्वाभाविक ज्ञान के विषय उस इंद्रिय ज्ञानके समय न होनेसे वे पदार्थ आत्माको प्रत्यक्ष रूपसे झलके ऐसा नहीं कहा . जासत्ता। जिन पदार्थीको आत्मा दुसरेके आलम्बन विना अपने स्वभावसे जाने वे ही पदार्थ मात्माके प्रत्यक्ष हैं ऐसा कहा जासक्ता है इसीलिये आत्माके स्वाभाविक केवलज्ञानको वास्तविक प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। और जो ज्ञान इंद्रियों और मनके द्वारा होता है . उसको परोक्ष ज्ञान कहते हैं। यहां हेतु बताया है कि ये इन्द्रिय आत्माका स्वभाव नहीं है क्योंकि शुद्ध आत्मामें जो अपने स्वाभाविक अवस्थामें हैं इंद्रियोंका बिलकुल भी अस्तित्व नहीं हैं न द्रव्य इन्द्रय हैं न भाव इन्द्रिये हैं हपलिये इनकी उत्पत्तिा कारण मात्मासे भिन पुद्गल द्रव्य है। पुद्गल वर्गणासे इन्द्रियों के व मनके आकार शरीरमें बनते हैं तथा जो आत्माले प्रदेश इन्द्रियोंके, आकार परिणमते हैं वे भी शुद्ध नहीं हैं, कमौके आवरणसे मलीन हो रहे हैं तथा मरिज्ञानावरणीय क्रमके क्षयोपशमसे जो . भाव इंद्रिय ज्ञान प्रगट है उसमें भी केवलज्ञानावरणीवका उदय है इसलिये वह ज्ञान शुद्ध स्वभाव. नहीं है किन्तु अशुद्ध विभाव रूप है। इसलिये वह भी निश्चयसे पौलिक है। पराधीन इंद्रिय ज्ञानसे नाना हुआ विषय भी बहुत स्थूल व बहुत अल्प होता है तथा .