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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
परद्रव्यं तान्यक्षाणि नैव स्वभाव इत्यात्मनो भणितानि । उपलब्धं तः कथं प्रत्यक्षमात्मनो भवति ॥५७॥
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सामान्याथ-वे पांचों इंद्रियें पर द्रव्य हैं क्योंकि वे मात्मा स्वभावरूप नहीं कही गई हैं इसलिये उन इंद्रियोंके द्वारा जानी हुई वस्तु किसतरह आत्माको प्रत्यक्ष होसक्ती है ? अर्थात नहीं हो सक्ती ।
अन्वय सहित विशेषार्थ - (ते अक्खा ) वे प्रसिद्ध पांचों इंद्रिये (अप्पणो ) आत्माकी अर्थात् विशुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभाव धारी आत्माकी (सहावो णेव भणिदा) स्वभाव रूप निश्चयसे नहीं कही गई है क्योंकि उनकी उत्पत्ति भिन्न पदार्थ से हुईं है (त्तिपर द०) इसलिये वे परद्रव्य अर्थात् पुद्गल द्रव्यमई हैं ( तेहि उवडं) उन इंद्रियों के द्वारा जाना हुआ उनहीका विषय योग्य पदार्थ सो (अपणो पञ्चकखं कहूं होदि) आत्माके प्रत्यक्ष किस तरह हो सक्ता है ? अर्थात् किसी भी तरह नहीं हो सक्ता है। जैसे पांचों इंद्रिय आत्मा के स्वरूप नहीं है ऐसे ही नाना मनोरथोंके करने में यह बात कहने योग्य है, मैं कहनेवाला हूं इस तरह
नाना विकल्पोंके नालको बनानेवाला जो मन है वह भी इंद्रिय
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ज्ञानकी तरह निश्चयसे परोक्ष ही है ऐसा जानकर क्या करना चाहिये सो कहते हैं - सर्व पदार्थोंको एक साथ अखंड रूपसे प्रकाश करनेवाले परम ज्योति स्वरूप केवलज्ञान के कारणरूप तथा अपने शुद्ध आत्म स्वरूपकी भावनासे उत्पन्न परम आनन्द एक लक्षणको रखनेवाले सुखके वेदन के आकार में परिणमन करनेवाले और रागद्वेषादि विकल्लोंकी उपाधिसे रहित स्वसंवेदन ज्ञानमें भावना'
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