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२२०] श्रीमवचनसार भाषाटीका। हैं । इन इंद्रियोंका विषय बहुत ही अल्प है जब कि केवलज्ञानका विषय एक साथ सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थोंको भिन्नर हरप्रकारसे जान लेनेका है । इन इंद्रियोंसे जाना हुआ विषय बहुत कालतक धार'णाम रहता नहीं, भुला दिया जाता है। जबकि केवलज्ञान सदा काल सर्व ज्ञेयोंको जानता रहता है। इंद्रियों के द्वारा प्राप्त ज्ञान अपूर्ण, क्रमवर्ती तथा विस्मरणरूप होनेसे न जानी हुई बातको जाननेकी आकुलताका कारण है। जिसको अल्प ज्ञान होता है वह अधिक जानना चाहता है । अधिक ज्ञान न मिलनेके कारण जबतक वह न हो तबतक वह व्यक्ति चिंता व दुःख किया करता है। जबकि केवलज्ञान सम्पूर्ण व अक्रम ज्ञान होनेसे पूर्णपने निराकुल है। इन्द्रियजनित ज्ञानमें मोहका उदय होनेसे किसी वस्तुसे राग व किसीसे द्वेष हो जाता है। अतींद्रिय केवलज्ञान सर्वथा निर्मोह है इससे रागद्वेष नहीं होता-केवलज्ञानी समताभावमें भीगा रहता है । इन्द्रियजनित ज्ञानके साथ रागद्वेष होनेसे कर्मका बन्ध होता है । जबकि केवलज्ञानमें वीतरागता होनेसे बंध भी नहीं होता | इस तरह इन्द्रियजनित ज्ञानको निर्बल, तुच्छ व पराधीन जानकर छोड़ना चाहिये और केवलज्ञानको 'ग्रहण योग्य मानके उसकी प्रगटताके लिये आत्मानुभवरूप आत्मज्ञानको सदा ही भावना चाहिये ॥५६॥ - उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इंद्रिय ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हैपरवं ते अक्खा,णेव सहावात्ति अप्पणो मणिदा उपलड़ते हि कहं पञ्चक्खं अपणो होदि ॥१९॥