________________
mummeemmmmmmmm
mmmmmmmmmmmmmmmmmmminene
'२४०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। भी पूर्व, अभ्याससे फिर पीलेता है । इस तरह होते होते भी एक दिन अवश्य भायगा कि अब उसकी भीतरी रुचि व ग्लानि उसके चित्तको दृढ़ कर देगी कि मदिरा नहीं पीना चाहे प्राण चले 'जावें । बस, उसी ही दिनसे वह मादक वस्तु ग्रहण न करेगा।
इसीतरह आत्मीक सुखकी रुचि तथा विषयसुखकी अरुचि तथा ग्लानि एक दिन इस भव्य जीवको बिलकुल विरक कर देगी फिर यह कषायखे मोहित न होता हुआ रुचिपूर्वक आत्मीक मानन्दका ही भोग करेगा । वीतराग सम्बग्डप्टी जीवकी ऐसी अवस्था हो नाती है कि वह शुद्ध सुखके स्वादके निरंतर खोजी रहते हैं । उनको उस समताकी भूमिसे हटकर कषायकी भूमिमें माना ऐसा ही दाहजनक है कि जैसे मछलियों का पानीको छोड़कर भूमिपर माना। तथा विषयभोगमें फंसना उतना ही कष्टमद है जितना कष्ट उस मछलीको होता है जब उसको जीता हुआ अग्निमें पड़ना होता है । तात्पर्य यह है कि सम सुखको ही उपादेय जानना चाहिये। इस तरह अभेद नयसे केवलज्ञान ही सुख कहा जाता है इस कथनकी मुख्यतासे चार गाथाओंसे चौथा स्थल पूर्ण हुआ। ॥ ६२ ॥
उत्थानिका-आगे संसारी जीवोंके जो इन्द्रियजनित ज्ञानके द्वारा साधा जानेवाला इन्द्रिय सुख होता है उसका विचार करते हैं। मणुआऽनुरामरिंदा,अहिद्दआ इंदिएहिं सहजहि । असहंता ते दुक्ख, रमति विसएस्तु रम्मेलुः ॥६॥