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श्रीमवचनसार भाषाटीका ।
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मनुजासुरामरेन्द्राः अभिद्रुता इंद्रियैः सहजे: । असहमानास्तदुःखं, रमन्ते विषयेसु रम्येसु ॥ ६५ ॥ सामान्यार्थ - मनुष्य व चार प्रकार के देव तथा उनके इन्द्र उनके शरीर के साथ उत्पन्न हुई इन्द्रियोंकी चाहसे अथवा स्वभाव से पैदा हुई इंद्रियी दाहसे पीड़ित होते हुए उस पीढ़ाको सहनेको मसमर्थ होते हुए रमणीक इंद्रियोंके विषयभोगोमें रमने लगते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ :- (मणुभासुरामरिंदा ) मनुप्य, भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी तथा कल्पवासी देव और मनुष्यों के इन्द्र चक्रवर्ती राजा तथा चार प्रकारके देवोंके सर्व इन्द्र ( सहजेहिं ) अपने ९ शरीरोंमें उत्पन्न हुई अथवा स्वभावसे पैदा हुई (इंदिएहिं ) इंद्रियोंकी चाहके द्वारा (अहिंदु) पीड़ित या दुःखित होकर (तं दुक्खं अहंता ) उस दुःखकी तीव्र धाराको न सहन करते हुए स्म्मे विसएस) सुन्दर मातृन होनेवाले इंद्रि यो विषयो में (मंति) रमण करते हैं। इसका विस्तार यह है कि जो मनुष्यादिक जीव अमूत्ते अतींद्रिय ज्ञान तथा सुखके आस्वादको नहीं अनुभव करते हुए मूर्तीक इंद्रियजनित ज्ञान तथा सुखके निमित्त पांचों इंद्रियोंके भोगों में प्रीति करते हैं उनमें जैसे गर्म लोहेका गोला चारों तरफसे पानीको खींच लेता है उसी तरह पुनः २ विषयोंमें तीव्र तृष्णा पैदा होती है । उस तृष्णाको न सह सकते हुए वे विषयभोगोंका स्वाद लेते हैं । इसलिये ऐसा जाना जाता है कि पांचों इन्द्रियोंकी तृष्णा रोगके समान है । तथा उप्तका उपाय बिषयभोग करना यह औषधिके समान है,