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२४२] श्रीप्रवचनसार भोपाटीका । परन्तु यह यथार्थ औषधि नहीं है यह मिथ्या औषधि है क्योंकि ज्यों २ ऐसी दवाकी जायगी विषयचाहकी दाइ बढ़ती जायगी जैसा एक कविने कहा है "मर्ज बढ़ता गया ज्या २ दवा की इसलिये संसारी जीवोंको वास्तविक सच्चे सुखश लाम नहीं होता है। ,
भावार्थ-मागे इस गाथामें श्राचार्य इंद्रियजनित मुखका स्वरूप कहते हुए यह बताते हैं कि यह सुख मात्र क्षणिक रोगका उपाय है जो रोगको खोता नहीं किन्तु उस रोगको ढ़ा देता है। बड़े बड़े चक्रवर्ती राना तथा इन्द्र जिनके पास पांचो इंद्रियोंके मनोवांछिन मोग होते हैं वे उन भोगोंके भोगने में इसी लिये चारवार का जाने हैं कि उनको इन्द्रियों के द्वारा को बाहरी पदाचौका ज्ञान हो है उनमें वे रागद्वेव कर लेते हैं। अर्थात उनमें गे पदार्थ इष्ट मारते हैं उनके भोगनेकी चाहरूपी दाह पैदां होती है। उप बाइसे जो पीड़ा होती है उसको सह नहीं सके
और धबद्धाकर इंद्रियों के भोगोंमें रमने लगते हैं । यद्यपि विषयों में रमना उस रोगकी शांतिका उपाय नहीं है तथापि अज्ञानसे जिस उपायसे इस रोगको मेटनेकी क्रिया यह संसारी प्राणी भरता रहा है उसी उपायको यह भी पूर्व अभ्याससे करने लग जाते हैं। बड़े २ पुरुष भी जिनको मति, श्रुत, अवधि तीरज्ञान हैं वो सम्यग्दृष्टी भी हैं वे भी इंद्रियोंकी · चाहकी पीड़ासे आकुलित होकर यह जानते हुए भी कि इन विषयभोगोंमे पीड़ा शांत न, होगी, चारित्र मोहले तीव्र उदयसे तथा पूर्व अभ्यासके संस्कारसे पुनः पुनः पांचों इंद्रियोंके भोगोंमें लीन ' होनाते हैं। तथ पि