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... ११८] श्रीप्रवचनसार भाषावका ।
हैं न दर्पण उनके पास जाता न वे सभाके लोग दर्पणमें प्रवेश करते तथापि परस्पर ऐसी शक्ति रखते हैं कि पदार्थ अपने आकार दर्पणको अर्पण करते हैं और दर्पण उनको ग्रहण करता है ऐसा ही ज्ञानका और ज्ञेयका सम्बन्ध जानना चाहिये ।
इस बात के स्पष्ट करनेसे आचार्यने आत्माकी सत्ताकी भिन्नता बताकर उसकी केवलज्ञानकी शक्तिकी महिमा प्रतिपादन की है और यह बतलाया है कि जैसे आंख अग्निको देखकर जलती नहीं, समुद्रको देखकर इनती नहीं, दुःखीको देखकर दुःखी व सुखीको देखकर सुखी होती नहीं ऐसी ही केवलज्ञानकी महिमा है-सर्व शुभ अशुभ पदार्थ और उनकी मनेक दुःखित व सुखित अवस्थाको जानते हुए भी केवलज्ञानमें कोई विकार रागद्वेष मोहका नहीं होता है । वह सदा ही निराकुल रहता है । ऐसे केवलज्ञा नके प्रभुत्त्वको जानकर हमारा कर्तव्य है कि उस शक्तिकी प्रगटबाके लिये हम शुद्धोपयोगकी भावना करें यही तात्पर्य है।
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि ज्ञानी मात्मा ज्ञेय पदाथोमें निश्चय नयसे प्रवेश नहीं करता हुआ भी व्यवहारसे प्रवेश किये हुए है ऐसा झलकता है ऐसी आत्माके ज्ञानकी विचित्र शक्ति है। ण पविट्ठो णाविट्ठोणाणी येसु रूवमिव चक्खू । जाणदि पस्सदिणियदंअक्खातीदो जगमसेसं ॥२९॥
न प्रविष्टो नाविष्टो शानी क्षेयेषु रूपमिव चक्षुः । जानाति पश्यति नियतमक्षातीतो जगदशेषम् ॥२९॥