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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [११७ है, क्योंकि ज्ञान गुण है, मात्मा द्रव्य है । द्रव्य और गुणमें सहश प्रदेशी तादात्म्य सम्बन्ध है। ऐसा निश्चयसे ज्ञान और मात्माका सम्बन्ध है । तो भी ज्ञान अपने कार्यके करनेमें स्वाधीन है। ज्ञानका काम सर्व तीन कालकी सर्व लोकालोकवर्ती पदार्थोंकी सर्व पर्यायोंको एक साथ जानना है । इस ज्ञानपनेके कामको करता हुआ यह आत्मा तथा उसका ज्ञान अपने नियत स्थानको छोड़शर नहीं जाते हैं । और न ज्ञेयरूपसे ज्ञानमें झलकनेवाले पदार्थ अपने २ स्थानको त्यागकर ज्ञानमें या आत्मामें माजाते हैं। कोई भी अपने २ क्षेत्रको छोड़ता नहीं तथापि जैसे आंखें अपने मुखमें नियत स्थान पर रहती हुई भी और सामनेके रूपी पदार्थोंमें न नाती हुई मी रूपी पदार्थोका प्रवेश आंखोंमें न होते हुए भी सामनेके रूपी पदार्थो को देख लेती हैं ऐसा परस्पर शेयज्ञायक सम्बन्ध है कि पदार्थोके आकारोंमें मांखोंके भीतर झलकनेकी और आंखोंके भीतर उगके आकारों को ग्रहण करनेकी सामर्थ्य है वैसे ही मात्माका ज्ञान अग्ने नियत आत्मांके प्रदेशोंमें रहना है तथा सर्व ज्ञेयरूप पदार्थ अपने २ क्षेत्रमें रहते हैं कोई एक दूसरेमें आते जाते नहीं तथा इनका ऐसा कोई अपूर्व ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध है जिससे सर्वशेष पदार्थ तो अपने २ आकारोंको केवलज्ञानमें झलकानेको समर्थ हैं और केवलज्ञान उनके सर्व साकारों को जानने में समर्थ है । दर्पणका भी हष्टांत ले सक्त हैं-एक दर्पणमें एक समाके विचित्र वस्त्रालंकृत हमारों मनुष्य दिखलाई पड़ रहे हैं। दर्पण अपने स्थान भीतपर स्थित है। सभाके लोग सभाके कमरेमें अपने अपने आसनपर विराजमान