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श्रीप्रवचनसार भाषाटीका ।
श्री समाधिशतक में श्री पूज्यपादस्वामीने कहा है:सोहमित्यात्त संस्कारस्तस्मिन् भावनया पुनः । तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते खात्मनि स्थितिम् ॥ २८॥ भावार्थ - वह शुद्ध मात्मा मैं हूं ऐसा संस्कार होने से तथा उसीकी भावनासे व उसीमें दृढ़ संस्कार होनेसे आत्मा अपने मात्मामें ठहर जाता है ।
श्री समयसार कलश में श्री अमृतचन्द्र आचार्य कहते हैं:यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन, ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा पर परिणतिरोधाच्छुद्धमेवाभ्युपैति ॥ ३-६ || भावार्थ - यह है कि जिस तरहसे हो उस तरह लगातार आत्मा ज्ञानकी भावनासे शुद्ध आत्माको निश्चयसे प्राप्त करता हुआ तिष्ठता है तब यह आत्मा अपने आत्माके उपवन में रमते हुए प्रकाशमान आत्माको परमें परिणतिके रुक जानेसे शुद्ध रूपसे ही प्राप्त कर लेता है।
भाव श्रुतज्ञान ही केवलज्ञानका कारण है। दोनोमें आत्माका समान ज्ञान होता है । जैसे केवली विकल्परहित स्वभावसे ज्ञाता दृष्टा आत्माको देखते जानते हैं वैसे श्रुतज्ञानी विकल्प रहित स्वभावसे ज्ञाता दृष्टा आत्मा को जानते हैं। यद्यपि श्रुतकेवली गणधर आदि ऋषि द्वादशांगके पारगामी होते हैं तथा वे ही स्वसंवेदन ज्ञानी श्रुतकेवली कहलाते हैं और ऐसा ही अभिप्राय टीकाकारने भी व्यक्त किया है तथापि स्वसंवेदन ज्ञानद्वारा आत्माका
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