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१६] श्रीमवचनसार भापाटीका । अनुभव करनेकी अपेक्षा द्वादशांगके पूर्ण ज्ञान विना भल्पज्ञानी चतुर्थ, पंचम, व छठा गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टी, या श्रापक या मुनि भी श्रुतकेवली उपचारसे कहे जासक्त हैं क्योंकि वे भी उस ही तरह मात्माको अनुभव करते हैं जिस तरह द्वादशांगके ज्ञाता श्रुतकेचली। ____ यहां आचार्यने भावश्नुवज्ञानको जो स्वानुभव करनेवाला है महिमायुक्त दर्शाया है क्योंकि इस हीके प्रतापसे कात्माका .स्वाद आता है तथा आत्माका ध्यान होता है जिसके द्वारा कर्म बंधन कटते हैं और आत्मा अपने स्वाभाविक केवलज्ञानको प्राप्त धरलेता है । तात्पर्य यह है कि हमको प्रमाद छोड़कर शास्त्रज्ञानके द्वारा निज आत्माको पहचानकर व उसमें शृशान हड़ जमाकर आत्माका मनन सतत् करना चाहिये जिससे साम्यभाव प्रगटे और वीतराग विज्ञानताको शक्ति आत्माफी शक्तिको व्यक्त करती चली जावे ॥२॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि शब्दरूर द्रव्यश्रुत व्यवहार नयसे ज्ञान है निश्चय करके अर्थ जाननरूप भावश्रुत ही ज्ञान है । अथवा आत्माकी भावनामें लवलीन पुल निश्चय श्रुत केवली हैं ऐमा पूर्व सूवमें कहा है, अब व्यवहार श्रुतकेचलीको कहते हैं अथवा ज्ञानके साथ जो श्रुतकी उपाधि है उसे दूर करते हैंसुत्तं जिणोवदिटुं, पोग्गलव्यप्पोहिं वयणेहिं । तजाणणाहिणाणं सुत्तस्सय जाणणा भणिया ॥३४