________________
ANN
श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [८५ यहां किसीने कहा कि केवलज्ञानीके भोजन है क्योंकि भौदारिक शरीरकी सत्ता है तथा असाता वेदनीय कर्मके उदयका सदभाव है, जैसे हमलोगोंके भोजन होता है इसका खंडन करते हैं कि श्री फेवली भगवानके औदारिक शरीर नहीं है किन्तु परम औदारिक है जैसा कहा है
शुद्धस्फटिकसंकाशं तेजो मूर्तिमयं वपुः । जायते क्षीणदोषस्य सप्तधातु विवर्जितम् ॥
अर्थात् दोष रहित केवलज्ञानीके शुद्ध स्फटिक मणिके समान परमतेजस्वी तथा सात धातुसे रहित शरीर होता है। और जो यह कहा है कि असाता वेदनीयके उदयके सद्भावसे केवलीके भूख लगती है और वे भोजन करते हैं सो भी ठीक नहीं है श्योंकि जैसे धान्य जौ आदिका बीन जल सहकारी कारण सहित होनेपर ही अंकुर आदि कार्यको उत्पन्न करता है तैसे ही असाता वेदनीय कर्म मोहनीय कर्मरूप सहकारी कारणके साथ ही क्षुधा आदि कार्यको उत्पन्न करता है क्योंकि कहा है “ मोहत्सवलेण घाददे जीवं" कि वेदनीय कर्म मोहके चलको पाकर जीवको घात करता है। यदि मोहनीय कर्मक अभाव होने पर भी असाता वेदनीय कर्म क्षुधा आदि परिषहको उत्पन्न करदे तो बध रोग आदि परीषह भी उत्पन्न हो जावे सो ऐसा होता नहीं है क्योंकि कहा है " भुक्त्युपसर्गामावात " कि केवलीके भोजन व उपसर्ग नहीं होते । और भी दोष यह आता है कि यदि केवलीको क्षुधाकी बाधा है तब क्षुधाके कारण शक्ति