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३००] श्रीमवचनसार भापाटीका। भावमई है । कषायकी कालिमासे रहित है । शुभोपयोग । यद्यपि व्यवहारमें शुभ कहा जाता है परन्तु वह एक कषायसे रंगा हुआ ही भाव है । पशुभोपयोग जब तीव्र कपायसे रंगा हुमा भाव है तब शुभोपयोग मंद कषायसे रंगा हुमा भाव है। कषाय की अपेक्षा दोनों ही अशुद्धभाव हैं इसलिये दोनों ही एक रूप अशुद्ध हैं। इस ही तरहसे इन शुभ तथा अशुभ भावोंसे बंधा हुआ सातावदेनीयादि द्रव्य पुण्य तथा असाता वेदनीय आदि द्रव्य पाप भो यद्यपि सुवर्ण वेड़ी और लोहेकी वेडीके समान व्यवहार नयसे भिन्न र हैं तथापि पुद्गल कर्मकी अपेक्षा दोनों ही समान हैं। ऐसे ही पुण्यकर्मके उदयसे प्राप्त सांसारिक सुख तथा तथा पाप कर्मके उदयसे प्राप्त सांसारिक दुःख यद्यपि साता अमातारी अपेक्षा भिन्न २ हैं तथापि निश्चयसे आत्माके स्वाभाविक मानन्दसे विपरीत होने के कारण समान हैं । आत्माके शुद्धोपयोगको, उनकी अबंध अवस्थाको तथा अतींद्रिय आनन्दवो जो पहचानकर उपादेय मानते हैं वे ही संसारसे पार होनाते हैं, परन्तु जो ऐमा नहीं मानते हैं वे मिथ्यात्वकर्मसे अज्ञानी रहते हुए शुभोपयोग, पुण्यकर्म तथा सांसारिक सुखोंको उपादेय और अशुभापयोग, पापकर्म तथा दुःखोंको हेय जानते हुए रागद्वेष भावोंमें परिणमन करते हुए इस भयानक संसारवनमें अनन्तकाल तक भटकते रहते हैं। उन नीवोंको पांच इंद्रिपमई सुख ही सुख भासता है, जिसके लिये वे तृषातुर रहते हैं और उस सुखकी प्राप्ति वाहरी पदार्थोके संयोगसे होगी ऐसा जानकर चक्रवर्ती व इन्द्र तकके ऐश्वर्यकी कामना किया करते हैं। इस निदानमावसे