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श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२९९ सामान्यार्थ-पुण्य और पापकर्ममें भेद नहीं है ऐसा नो निश्चयसे नहीं मानता है वह मोहफर्मसे ढका हुभा भयानक और अपार संसारमें भ्रमण करता है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(पुण्णपाचाणं णस्थि विसेसोत्ति) पुण्य पापकर्ममें निश्चयसे भेद नहीं है (जो एवं गहि मण्णदि ) जो कोई इस तरह नहीं मानता है (मोहसंछण्णो) वह मोहकर्मसे माच्छादित जीव (घोरं अवारं संसारं हिंडदि) भयानक
और अभव्यकी अपेक्षासे अपार संसारमें भ्रमण करता है। मतलब यह है कि द्रव्य पुण्य और द्रव्य पापमें व्यवहार नयसे भेद है, भाव पुण्य और भाव पापमें तथा पुण्य पापके फल रूप सुख दुःखमें अशुद्ध निश्शयनयसे भेद है। परंतु शुद्ध निश्चयनयसे ये द्रव्य पुण्य पापादिक सब शुद्ध आत्माके स्वभावसे भिन्न हैं इसलिये इन पुण्य पापोंमें कोई भेद नहीं है। इस तरह शुद्ध निश्चयनयसे पुण्य व पापकी एकताको जो कोई नहीं मानता है वह इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, कामदेव आदिके पदोंके निमित्त निदान बन्धसे पुण्यको चाहता हुमा मोह रहित शुद्ध आत्मतत्त्वसे विपरीत दर्शनमोह तथा चारित्र मोहसे ढका हुआ सोने और लोहेकी दो वेड़ियों के समान पुण्य पाप दोनोंसे बंधा हुआ संसार रहित शुद्धात्मासे विपरीत संसारमें भ्रमण करता है।
भावार्थ-यहां भाचार्यने शुद्ध निश्चयनयको प्रधानकर यह बतादिया है कि पुण्य और पापकर्ममें कोई भेद नहीं है। दोनों दी बंघरूप हैं, पुद्गलमय है, मात्माके स्वभावसे भिन्न हैं। मात्माका स्वभाव निश्चयसे शुद्ध दर्शन ज्ञान स्वरूप परम समता