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श्रीप्रवचनसार भापार्टीका। [३०१ वे द्रव्यलिंग धारकर मुनि धर्म भी पालते हैं तथापि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थानमें ही ठहरे हुए अनन्त संसारके कारण होते हैं। यहां भाचार्य के कहनेका तात्पर्य यह है कि इन अशुद्ध भावोंसे तथा पुण्य पापकर्मोसे मात्माको साम्यभावकी प्राप्ति नहीं हो सती है । अतएव इन सबसे मोह त्याग निज शुद्धोपयोग याः साम्यभावमें भावना करनी योग्य है जिससे यह आत्मा अपने निज स्वभावका विकास करनेवाला हो जावे ॥ ८१॥
उत्थानिका-इस तरह ज्ञानी जीव शुभ तथा अशुभ उपयोगको समान जानकर शुद्धात्म तत्वका निश्चय करता हुआ संसारके दुःखोंके क्षयके लिये शुद्धोपयोगके साधनको स्वीकार करता है ऐसा कहते हैं:एवं विदिदत्थो जो दव्वेस्ट ण रागमेदि दोसं वा। उपओगाविसुन्धो सो, खवेदि देशुम्भव दुःखं ॥८॥
एवं विदित्वार्थो यो द्रव्येषु न रागमेति द्वेपं वा । उपयोगविशुद्धः स क्षपयति देहोद्भवं दुःख ॥ ८२ ॥
सामान्यार्थ-इस तरह पदार्थोके स्वरूपको जाननेवाला जो कोई पर द्रव्यमें राग या द्वेष नहीं करता है वह शुद्ध उपयोगको रखता हुआ शरीरसे उत्पन्न होनेवाले दुःखका नाश करदेता है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(एवं विदिदत्यो जो) इस तरह चिदानन्दमई एक स्वभावरूप परमात्म तत्वको उपादेय तथा इसके सिदाय अन्य सर्वको हेय जान करके हेयोपादेयके यथार्थ ज्ञानसे तत्त्व स्वरूपका ज्ञाता होकर जो कोई (दव्येसु ण रागमेदि दोसं वा) अपने शुद्ध आत्मद्रव्यसे अन्य शुभ तथा अशुभ सर्व