________________
३२] श्रामवचनसार भाषाटीका । द्रव्योंमें राग द्वेप नहीं करता है। (सो उपओगविसुद्धो ) वह रागादिसे रहित शुद्धात्माके अनुभवमई लक्षणके घारी शुद्धोपयोगसे विशुद्ध होता हुमा (देहुन्भवं दुःख खवेदि) देहके संयोगसे उत्पन्न दुःखको नाश करता है । अर्थात् यह शरीर गर्मलोहे के पिंड समान' है। उससे उत्पन्न दुःखको जो निराकुलता लक्षणके धारी निश्चय सुखसे विलक्षण है और बड़ी भारी आकुलताको पैदा करनेवाला है, वह ज्ञानी आत्मा लोहपिंडसे रहित अग्निके समान अनेक 'वोटोका स्थान जो शरीर उससे रहित होता हुआ नाश कर देता है यह अभिप्राय है।
भावार्थ-यहां आचार्यने संसारके सर्प दुःखोंके नाशका उपाय एक शुद्ध गात्मीकभाव है ऐमा प्रगट किया है। तथा" बताया है कि जैसे गर्म लोहेकी संगतिमें अग्नि नाना प्रकारले पीटे 'जाने की चोटको सहती है उस ही तरह यह मोही नीव शरीरकी संगतिसे नाना प्रकार के दुःखोंको सहता है। परन्तु जिसने इस देहको व उसके आश्रित पांचों इंद्रियोंको व उन इंद्रिय सम्बंधी पदार्थीको तथा उनसे होनेवाले सुखको आकुलताका कारण, संसारका बोज तथा त्यागने योग्य निश्चय किया है और देह रहित आत्मा तथा उसकी वीतरागता और अतींद्रिय आनन्दको ग्रहण करने 'योग्य जाना है वही पदार्थोंके स्वरूपको यथार्थ जाननेवाला है। ऐसा तत्वज्ञानी जीव निज आत्माके सिवाय सर्व पर द्रव्योंमें राग या द्वेष नहीं करता है किन्तु उनको उनके स्वभावरूप समताभावसे जानता है वह निर्मल शुद्ध भावका धारी होता हुआ शुद्धोपयोगमें लीन रहता है। और इस पारमध्यानको