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.श्रीमवचनसार भाषाटीका। [६९ " सामान्यार्थ-उन सिद्ध शुद्ध परमात्माके नाश रहित स्वरूपकी प्रगटता है तथा जो विभाव भावोंका व अशुद्धताका नाश हो गया है वह फिर उत्पाद रहित है ऐसा नित्य स्वभाव होने पर भी उस परमात्माके उत्पाद व्यय प्रौव्यकी एकता पाई. जाती है। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-( य भंगविहीणः ) तथा 'विनाश रहित ( भवः) उत्पाद अर्थात् श्री सिद्ध भगवानके लीना मरना आदिमें समताभाव है लक्षण जिसका ऐसे परम उपेक्षा रूप शुद्धोपयोगके द्वारा जो केवलज्ञानादि शुद्ध गुणोंका प्रकाश हुआ है वह विनाश रहित है तथा उनके (सम्भव परिवजिदः) उत्पत्ति रहित (विणासः) विनाश है पर्यात विकार रहित आत्मतत्त्वसे विलक्षण रागादि परिणामों के अभाव होनेसे फिर उत्पत्ति नहीं हो सक्ती है इस तरह मिथ्यात्व व रागादि द्वारा भ्रमणरूप संसारकी पर्यायका जिसके नाश हो गया है। (हि) निश्चय करके ऐसा नित्यपना सिद्ध भगवानके प्रगट हो जाता है जिससे यह बात जानी जाती है.कि द्रव्याथिक नयसे सिद्ध भगवान अपने स्वरूपसे कभी छूटते नहीं हैं। ऐसा है (पुणः) तौमी (तस्सेव) उन ही सिद्ध भगवानके (ठिदिसम्भवणाससमवायः) प्रौव्य उत्पाद व्ययका समुदाय (विदि ) विद्यमान रहता है । अर्थात् शुद्ध व्यंजन पर्यायकी अपेक्षा पर्यायार्थिक नयसे सिद्ध पर्यायका जब उत्पाद हुमा है तब संसार पर्यायका नाश हुभा है तथा केवलज्ञान आदि गुणोंका आधारभूत द्रव्यपना होनेसे ध्रौव्यपना है । इससे यह सिद्ध हुआ कि यद्यपि सिद्ध भगवानके द्रव्यार्थिक