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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२९५ सदा विना अन्तर पड़े ब नाशहुए रहनेवाला है। इंद्रिय सुख (बन्धकारण) देखे, सुने, अनुभवकियेहुए भोगोंकी इच्छाको पादि लेकर अनेक खोटे ध्यानके आधीन होनेसे भविप्यमें नरक आदिके दुःखोंको पैदा करनेवाले कर्मबन्धको बांधने. वाला है अर्थात् कर्मबंधका कारण है, जबकि अर्तीद्रिय सुख सर्वे अपध्यानोंसे शून्य होने के कारणसे बंधका कारण नहीं है । तथा (विसमं) यह इंद्रियसुख परम उपशम या शांतभावसे रहित तृप्तिकारी नहीं है अथवा हानि वृद्धिरूप होनेरो एकसा नहीं चलता किन्तु विप्सम है, जब कि अतींद्रिय मुख परम तृप्तिकारी और हानि वृद्धिसे रहित है, (तघा दुक्खमेव ) इसलिये यह इंद्रिय मुख पांच विशेषण सहित होनेसे दुःखरूप ही है ऐसा अभिप्राय है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने इंद्रियजनित सुखको बिलकुल दुःखरूप ही सिद्ध किया है। वास्तवमें जिसका फल बुरा वह वस्तु वर्तमानमें अच्छी मालूम होनेपर भी कामकी नहीं है। यदि कोई फल खानेमें मीठा हो परन्तु रोग पैदा करनेवाला होव मरण देनेवाला हो तो वह फल अनिष्ट कहलाता है बुद्धिमान लोग ऐसे फलको कभी भी ग्रहण नहीं करते । यही बात इंद्रिय सुखके साथ सिद्ध होती है । इंद्रियोंके भोगसे जो स्पर्शके द्वारा, स्वादके द्वारा, सूंघने के द्वारा, देखने के द्वारा तथा सुननेके द्वारा सुख प्रगट , होता है वह सुख वास्तवमें सुख नहीं है किन्तु सुखसा मात होता है। वह तो असल दुःख ही है क्योंकि उसमें नीचे लिखे पांच दोष हैं। पहला-दोष यह है कि वह पराधीन है क्योंकि जबतक
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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