SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 97
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ wwwm ७८] श्रीप्रवचनसार भापाटीका। mmmimom तं सव्वयवरि, इई अमरासुरप्पहाणेहिं । ये सद्दहति जीपा, तेसिं दुक्खाणि खायति ॥१॥ तं सर्वार्थवरिष्टं इष्टं अमरासुरप्रधान .... ये श्रद्दधति जीवाः तेषां दुःखानि दीयन्ते ।। समान्यार्थ-जो जीव देवकि इन्द्रोंसे पूज्यनीक ऐसे सब पदार्थो श्रेष्ठ परमात्माका शृडान रखते हैं उनके दुःख नाश, हो जाते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(ये जीवाः) जो भव्यजीव (अमरासुरप्पहाणेहिं ) स्वर्गवासी देव तथा भवनत्रिकके इन्द्रोंसे (8) माननीय (तं सन्वट्ठवरित्य) उस सर्व पदार्थोंमें श्रेष्ठ परमारमाको (सद्दहति श्रद्धान करते हैं (तेसिं) उनके ( दुक्खाणि). सब दुःख (खीयंति) नाशको प्राप्त हो जाते हैं। भावार्थ-इस गाथाकी टीका श्री अमृतचन्द्र पाचार्यने नहीं की है परन्तु श्री जयसेनाचार्यने की है। इस गाथाका भाव यह -शुद्धोपयोगमई साम्यभावका आश्रय करके जिन भव्यनीवोंने सर्वज्ञ पद या सिद्ध पद प्राप्त किया है वे ही हमारे उपासकोंके लिये पूज्यनीय उदाहरण रूप भादर्श हैं। मिस पूर्ण वीतरागता, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण वीर्य तथा पूर्ण सुखका लाभ हरएक आत्मा चाहता है उसका लाभ जिसने कर लिया है वह आत्मा तथा जिस उपायसे ऐसा लाभ दिया है वह मार्ग दोनों ही धर्मेच्छु जीवके लिये भादर्श रूप हैं-शुद्धोपयोग मार्ग है और शुद्ध मात्मस्वरूप. उस मार्गका फल है इन दोनोंका यथार्थ श्रृद्धान और ज्ञान होना
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy