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श्रीप्रवचनसार भाषाका। [१५ वंदनाकी अपेक्षा एक साथ एक साथ तथा (पत्तेयं पत्तेय) प्रत्येकको अलग २ वंदनाकी अपेक्षा. प्रत्येक प्रत्येकको (य) और (माणुसे खेत्ते) मनुष्योंकि रहने के क्षेत्र ढाईटोपमें (वट्टने) वर्तमान (अरहंते) अरहोंको (वंदामि) मैं वन्दना करता हूं। भाव यह है कि वर्तमानमें इस भरतक्षेत्रमें तीर्थंकरोंका अभाव है परन्तु ढईद्वीपके पांच विदेहोंमें श्रीमन्दरस्वामी तीथकर आदि २० तीर्थकर परमदेव विराममान हैं इन सबके साथ उन पहले कहे हुए पांच परमेष्टियोंको नमस्कार करता हूं। नमस्कार दो प्रकारका होता है द्रव्य और भाव, इनमें भाव नमाकार मुख्य है । इस भाव नमस्कारको मैं मोक्षकी साधनरूप सिद्ध भक्ति तथा योग भक्तिसे करना हू । मोक्षरूप लक्ष्मीका स्वयम्बर मंडप रूप मिनेन्द्रके दीक्षा काल मगलाचार रूप में अनन्त ज्ञानादि सिद्धके गुणोंकी भावना करनी उसको सिद्धभक्ति कहते हैं । जैसे ही निर्मल समाधिमें परिणमन रूप परम योगियों के गुणों की अथवा परम योपके गुणोंको भावना फरनी सो योग भक्त है। इस ताह इस गाथाये विदेहोंके तीर्थकरोके नमस्कारकी मुख्यतासे कथन किया गया।
भावार्थ-श्री कुंदकुंदाचाजी महाराज अपनी अंतरंग श्रद्धाकी महिमाका प्राश करते हुए कहते हैं कि पहले तो जो पहली गाथाओंमें अरदंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु इन पांच पामेष्ठियोंका कथन आया है उन सबको एक साथ भी नमस्कार करता इ तथा प्रत्येकको अलगर भी नमन करता हूं । नम अभेद नयसे देखा जाय तो सर्व परमेष्ठी रत्नत्रयकी अपेक्षा एक रूप हैं तथा भेद नयकी अपेक्षा सर्व ही व्यक्ति रूप अलग २ हैं-अनंत सिद्ध