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२१२] श्रीभवचनसार भाषाटीका ।
यत्प्रेक्ष्यमाणस्यामूर्त मूतेष्वतीन्द्रियं च प्रच्छन्नम् । सकलं स्वकं च इतरत् तद् ज्ञानं भवति प्रत्यक्षम् ॥५४॥
सामान्यार्थ-देखनेवाले पुरुषका जो ज्ञान अभूतिक द्रव्यको, मूर्तीक पदार्थोंमें इन्द्रियोंके अगोचर सुक्ष्म पदार्थको तथा गुप्त पदार्थको सम्पूर्ण निज और पर ज्ञेयोंको जो जानता है वह ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ- पेच्छदो) अच्छी तरह देखनेवाले केवलज्ञानी पुरुषका (जे) जो अतीन्द्रिय केवलज्ञान है सो ( अमुत्तं ) अमूर्तीकको अर्थात् अतीन्द्रिय तथा राग रहित सदा आनन्दमई सुखस्वभावके धारी परमात्मद्रव्यको आदि लेकर सर्व अमूर्तीक द्रव्य समूहको, ( मुत्तेषु ) मूर्तीक पुद्गल द्रव्योंमें (अदिदियं ) अतीन्द्रिय इन्द्रियोंके अगोचर परमाणु भादिकोंको (च पच्छण्णं ) तथा गुप्तको अर्थात् द्रव्यापेक्षा कालाणु आदि अप्रगट तथा दूरवर्ती द्रव्योंको, क्षेत्र अपेक्षा गुप्त अलोकाकाशके प्रदेशादिकोंको, काल अपेक्षा प्रच्छन्न विज्ञार रहित परमानन्दमई एक सुखके मास्वादनकी परिणतिरूप परमात्माके वर्तमान समय सम्बन्धी परिणामोंको आदि लेकर सर्व द्रव्योंकी वर्तमान समयकी पर्यायोंको, तथा भावकी अपेक्षा उसही परमात्माकी सिद्धरूप शुद्ध व्यंजन पर्याय तथा अन्य द्रव्योंकी जो यथासंभव व्यंजन पर्याय उनमें अंतर्भूत अर्थात् मग्न जो प्रति समयमें वर्तन करनेवाली छः प्रकार वृद्धि हानि स्वरूप अर्थ पर्याय इन सब प्रच्छन्न द्रव्यक्षेत्रकाल
भावोंको, और (सगं च इदर) जो कुछ भी यथासंभव अपना द्रव्य. . सम्बन्धी तथा परद्रव्य सम्बन्धी या दोनों सम्बन्धी है (सयलं).