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: श्रीभवचनसार भाषाटीका । . [ २११. इनकी प्रगटता के लिये किसी भी पर मूर्तीक' पुद्गलकी सहायताकी आवश्यक्ता नहीं है इसीसे ये दोनों अमूर्तीक और इंद्रियोंकी आधीनतासे रहित हैं। इनके विपरीत जो ज्ञान क्षयोपशमिक है । वह इन्द्रियों तथा मनके मालम्बनसे पैदा होता है सो मूर्तीक है क्योंकि अशुद्ध है-कर्मसहित भात्मामें होता है। कर्म रहित आत्मामें यह इन्द्रियजन्य ज्ञान नहीं होता है-यह अमूर्तीक आत्माका स्वभाव नहीं है। कर्मसहित संसारी मूर्तीकमा झलकने वाला आत्मा ही इन्द्रियजन्य ज्ञानको रखता है-तैसे ही मो इंद्रिय जनित सुख है वह भी मूर्ती है। क्योंकि वह प्रख मोह भावका भोगमात्र है जो मोहभाव मूर्तीक मोहनीय कर्भके उत्यमे हुआ है इसलिये मूर्तीक है तथा अमूर्तीक शुद्ध आत्माका स्वभाव नहीं है। क्योंकि यह इंद्रियजनित ज्ञान और सुख दोनों इंद्रेयोंके बलके माधीन, बाहरी पदार्थोंके मिकनेके आधीन तथा पुण्य कर्मके उदयके आधीन हैं इसलिये पराधीन हैं विनाशवान हैं इसी लिये त्यागने योग्य हैं । ये इंद्रियान्य ज्ञान और सुख ..रके बनाने वाले हैं । जबकि अतींद्रिय ज्ञान और सुख मोक्ष स्वरूप हैं, अविनाशी हैं तथा परमशांति पैदा करनेवाले हैं-ऐसा मानकर अतींद्रिय सुखकी ही भावना करनी योग्य है। इस प्रकार अधिः कारकी गाथासे पहला स्थल गया ॥९॥ ' . उस्थानिका-आगे उसी पूर्वमें कहे हुए अतींद्रिय ज्ञानका विशेष वर्णन करते हैं- '. जं पेच्छदो अमुत्तं, मुत्तेष्ठ अदिदियं च पच्छण्णं । सकलं सगं च इंदरं, ते गाणं हवादि पचखं ॥१४॥