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३६४] श्रीमवचनसार भापाटीका ।
भावार्थ-आचार्य ने इस गाथामें उपासकके लिये धर्म सेवनका फल बताया है तथा यह भी प्रगट किया है कि मोक्षका साक्षात् लाभ वही साधु कर सकता है जो निश्चय रत्नत्रयमें लीन होकर शुद्धोपयोगमें स्थिर होता है । वीतराग चारित्रके विना कर्मोका दहन नहीं हो सका है। तब जो गृहस्थ हैं या चौथे पांचवें गुणस्थान धारी हैं उनको क्या फल होगा? इसके लिये कहा है कि वे मनुष्य या पंचेन्द्री सैनी पशु अतिशयकारी पुण्य बांधकर स्वर्ग में जाते हैं, वहांसे भार उच्च मनुप्यके पद पाकर मुनि हो मोक्ष आते हैं, अथवा कोई इसी भावके पीछे मनुष्य हो मुनिव्रत पाल मोक्ष जाते हैं। उपासक या श्रावकका धर्म परम्परा मोक्ष साधक है जब कि साधुका धर्म साक्षात मोक्ष साधक है । इसका अभिप्राय यह नहीं है कि राष ही साधु उसी भवसे मोक्ष पा सक्ते हैं, किन्तु यह है कि यदि मोक्ष होगी तो साधु पदमें परम शुलध्यान द्वारा ही मोक्ष होगी। बातवमें इस शुद्धोपयोगकी भक्ति भी परमार्थकारी पै ॥ १.१॥ ___ इस प्रकार श्री जयसेनाचार्य कृत तात्पर्य वृत्ति टीकामें पूर्वमें कहे प्रमाण " एस सुरासुरमणुसिंदबंदियं " इस गाथाको आदि लेकर ७१ बहत्तर गाथाओंमें शुद्धोपयोगका अधिकार है फिर " देवदादि गुरु पूजासु" इत्यादि पचीस गाथाओंसे ज्ञानकंठिका चतुष्टय नामका दुसरा अधिकार है फिर “सत्तासंबढेदे, इत्यादि सम्यकदर्शनका कथन करते हुए प्रथम गाथा, तथा रत्नत्रयके धारी पुरुषके ही धर्म संभव है ऐसा कहते हुए " जो णिहदमोदविट्ठी " इत्यादि