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१९६] श्रीप्रवचनसार भापार्टीका। पदार्थ तथा उनकी सर्व अवस्थाएं एक समयमें स्पष्ट २ नहीं मालूम पड़ सक्ती हैं वे ही श्रुतज्ञानी आत्माको भी अपने स्वानुभवसे जान लेते हैं । यद्यपि केवलज्ञानीके समान पूर्ण नहीं जानते उनको कुछ मुख्य गुणोंके द्वारा आत्माका स्वभाव मनात्मद्रव्योंसे जुदा भासता है । इसी लक्षणरूप व्याप्तिसे वे लक्ष्यरूप आत्माको समझ लेते हैं और इसी ज्ञानके द्वारा निज आत्माके स्वरूपकी । भावना करते हैं तथा स्वरूपमें अशक्ति पाकर निजानंदका स्वाद लेते हुए वीतरागतामें शोभायमान होते हैं। और इसी शुद्ध, भावनाके प्रतापले वे केवलज्ञानको प्रगट करलेते हैं। ऐसा जान निज स्वरूपका मनन करना ही कार्यकारी है ॥ १९ ॥
उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो ज्ञान क्रमसे पदाथोंके जाननेमें प्रवृत्ति करता है उस ज्ञानसे कोई सर्वज्ञ नहीं होसका है अर्थात् क्रमसे जाननेवालेको सर्वज्ञ नहीं कह सके । उपजदिदिणाणं, कमलो अत्थे पड्डुच्च णाणिस्स। तं व हयदि णिचं, ण खाहगं व सधगदं ॥१०॥
उत्पद्यते यदि शान क्रमशोऽर्थान् प्रतीत्य शानिनः। तन्नैव भवति नित्यं न क्षायिकं नैव सर्वगतम् ॥ ५० ॥ सामान्यार्थ-यदि ज्ञानी आत्माका ज्ञान पदार्थोको आश्रय करके क्रमसे पैदा होता है तो वह ज्ञान न तो नित्य है, न क्षायिक है, और न सर्वगत है। ___ अन्य सहित विशेषार्थ-(जदि) यदि (गाणिस्स) ज्ञानी आत्माका ( गाणं ) ज्ञान (अत्थे ) मानने योग्य पदार्थों को