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'श्रीमवचनसार भाषाटीका |
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न्यमें व्याप्य हैं. अर्थात् गर्भित हैं । जो कोई अपने आत्माके स्वभावको पूर्णपने प्रत्यक्ष स्पष्ट जानता है वह नियमसे उस ज्ञान स्वभाव द्वारा प्रगट सर्व पदार्थोंको जानता है । यह ज्ञेय ज्ञायक सम्बन्ध दुर्निवार है और जो कोई अपने 1 errearrant प्रत्यक्ष नहीं जानता है वह सर्वको माँ नहीं जानसक्ता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि आत्मज्ञानी सर्वका जाननेवाला होता है । यहां यह भी समझना चाहिये कि निर्मल ज्ञानमें दर्पण में प्रतिविभवकी तरह सर्व पदार्थोंके आकार स्वयं झककते हैं वह ज्ञान ज्ञेयाकारता होजाता है । इसलिये जो दर्पणको देखता है वह उसमें झलकते हुए सर्व पदार्थों को देखता ही है । जो दर्पणको नहीं देखता है । वह झलकनेवाले पदार्थोको भी नहीं देख सक्ता है | इसी तरह जो निर्मल शुद्ध आत्माको देखता है वह उसमें झलकते हुए सर्व ज्ञेवरूप अनंत द्रव्यों को भी देखता है । इसमें कोई शंका नहीं है। ऐसा ज्ञाताके भीतर ज्ञानज्ञेष सम्मन्य है । ज्ञानसे जो प्रगटे व शेप | शेपली मराटावे वह . ज्ञान । ज्ञान आत्माका स्वभाव है । इसलिये आत्मा को जाननेवाला सर्वज्ञ होता ही है । अथवा जो कोई पुरुष एक द्रव्यको उसकी अनंत पयोंके साथ जाननेको असमर्थ है वह सर्व द्रव्यों को एक समय कैसे जानसक्ता है ? कभी भी नहीं जानसक्ता है । जिस ferent शुद्धता होगtant अपने को भी, दुसरेको भी, एकको भी अनेक भी, सर्वज्ञेष मात्रको एक समय में जानसक्ता है। स्वपरका प्रत्यक्ष ज्ञान केवलज्ञानी हीको होता है । जो अल्पज्ञानी हैं के श्रुतज्ञानके द्वारा परोक्षरूप से सर्वज्ञेोंको जानते हैं परंतु उनको स