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२६०] अभिवचनसार भाषाटीका । कोई रागद्वेषकी कालिमा है और इसीसे काल्पनिक पराधीन ज्ञान तथा सुख नहीं है। जबतक कर्मबन्धनकी अशुद्धता मात्मामें रहती है तबतक यह आत्मा अपने स्वाभाविक गुणोंका बिकाश नहीं कर सका है। बंधनके मिटते ही शुद्ध स्वभाव प्रगट हो जाता है। यद्यपि शुद्ध आत्मामें अनन्तगुणोंका प्रकाश हो जाता है तथापि यहां उन ही गुणोंको मुख्य करके बताया है जिनको हम जानकर आत्माकी सत्ताको अनात्मासे भिन्न पहचान सक्ते हैं। इसी लिये यहां ज्ञान और सुख दो मुख्य गुणोंकी महिमा बता दी है-ज्ञानसे सर्वको जानते तथा मापको जानते और सुखसे स्वाधीन निजानन्दका भोग करते हुए परमाल्हाद रूप रहते हैं।
और इसी कारण शुद्ध पात्मा गणधर, इंद्रादिक तथा अन्य ज्ञानी सम्यग्दृष्टी भव्योंके द्वारा आराधने योग्य व स्तवनके योग्य परम देवता है। यहां दृष्टांत सुय्यका दिया है। सूर्यमें एक ही काल तेज और उप्णता प्रगट है अर्थात् सूर्य सब पदार्थोको व अपनेको प्रकाश करता है और उष्णता प्रदान करता है और इसीलिये अज्ञानी लौकिक जनोंके द्वारा देवता करके आदर पाता है। वास्तवमें सन्मान गुणोंका हुमा करता है । इस गाथासे यह भी प्राचार्यने प्रगट किया है कि ऐसा ही शुद्ध खात्मा हमारे द्वारा परमदेव मानने योग्य है । तथा हमें अपने आत्माका स्वभाव ऐसा ही जानना, मानना तथा अनुभवना चाहिये-इसी स्वभावके ध्यानसे स्वसंवेदन ज्ञान तथा निनात्मीक सुख झलकता है जो केवलज्ञान और अनन्तसुखका कारण है। वास्तवमें शरीर तथा इंद्रियों के विषय मुखके कारण नहीं हैं। इस तरह स्वभावसे ही आत्मा मुख