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भीमक्चनसार भाषाटीका। [२६१ स्वभाव है अतएव इंद्रियोंकि विषय भी मुक्तात्माओं के सुखके कारण नहीं होते हैं ऐसा कहते हुए दो गाथाएं पूर्ण हुई ॥७०॥
उत्थानिका-मागे श्री कुन्दकुन्दाचार्य देव पूर्वमें कहे हुए लक्षणके धारी अनंतसुखके आधारभूत सर्वज्ञ भगवानको वस्तु स्वरूपसे स्तवनकी अपेक्षा नमस्कार करते हैं:तेजो दिडी गाणं इड्ढी सोक्खं तहेव ईसरियं । तिवणपहाणदइयं, माहप्पं जस्स सो अरिहो॥७१
तेजः दृष्टिः ज्ञानं ऋद्धिः सुखं तथव ऐश्वर्य । त्रिभुवनप्रधानदेवं माहात्म्य यस्य सोऽहन् ॥ ७१ ॥
सामान्यार्थ-भामंडल, केवळदर्शन, फेवलज्ञान, समवनरणकी विभूति, अतींद्रिय सुख, ईश्वरपना, तीन लोकमें प्रधान देवप्ना इत्यादि महात्स्य जिसका है उसे महन्त कहते हैं ।
अन्वय सहित विशेषार्थ-( तेनो) प्रभाका मंडळ (दिही) तीन नगत व तीन कालकी समस्तु वस्तुओंकी सामान्य सत्ताको एक काल ग्रहण करनेवाला केवलदर्शन ( णाणं ) तथा उनकी विशेष सत्ताको ग्रहण करनेवाला फेवलज्ञान, (इडी) समवशरणकी सर्व विभूति (सोक्ख) बाधा रहित अनंत सुख, (ईसरियं) व जिनके पदकी इच्छासे इन्द्रादिक भी जिनकी सेवा करते हैं ऐसा ईश्वरपना ( तहेव तिहुवणपहाणदइयं ) वैसे ही तीन भवनके ईशोरके भी वामपना या इष्टपना ऐसा देवपना इत्यादि (जस्स माहप्पं) निसका महात्म्य है (सो अरिहो) वही अरहंत देव है । इस प्रकार वस्तुका स्वरूप कहते हुए नमस्कार किया।