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१७२ ]. श्रीप्रवचनसार भामाटीको । भी केवलीभगवानके, कोका बंध नहीं होता, धयोंकि न तो उनके उन कार्योंके करनेकी इच्छा ही है और न वे कार्य केवली अगवानमें मोह उत्पन्न करनेके कारण होसके हैं । केवली महारान जब विहार करते हैं तब खड़े होकर विना डग भरे .आकाशमें 'चलते हैं । जब समवशरण रचता है नत्र कमलाकार सिंहासनपर
अंतरीक्ष बैठते हैं । चलना, खड़े होना तथा बैठना ये तो शरीरकी 'क्रियाएं हैं तथा अपनी परम शांत अमृतमई दिव्यवाणीके द्वारा मेघकी गर्जनाके समान निरक्षरी ध्वनि प्रगट करके धर्मका उपदेश देना यह वचनकी क्रिया है। ऐसे काय और वचन योगके. प्रगट व्यापार हैं । इसके सिवाय शरीरमें नोकर्म वर्गणाका ग्रहण, पुरातन वर्गणाका क्षरना, काय योगका वर्तना, शरीरके अवयवोका पुष्टि पाना आदि अनेक शरीर सम्बन्धी कार्य कर्मोंके उदयसे होते हैं । इन कार्योंमें केवली महाराजके रागयुक्त, उपयोगकी कुछ प्रेरणा या चेष्ठा नहीं है इसीसे केवली महारानकी क्रियाएं बिलकुल बंधकी करनेवाली नहीं है। यहांपर गाथामें विना 'इच्छाके कर्मजन्य क्रियाने लिये स्त्रीके मायांचारमई स्वभावका दृष्टांत दिया है, जिसका भाव यह है कि स्त्री पर्यायमें स्त्री वेदका उदय 'अधिकांशमें तीव्र होता है जिससे भोगकी इच्छा सदा भीतरमें जलती रहती है उसीके साथ मायां कषायका भी तीव्र उदय होता है जिससे अन्य कार्योको करते हुए स्त्रियों में अपने हावभाव विलास व अपनी शोभा दिखलानेकी चेष्टा रहती है कि पुरुष
हमपर प्रेमालु हो-ऐसा मायाचारका स्वभावसा स्त्रियोंका होता है , जिसका मतलब यह है कि अभ्यास और संस्कार व तीन कर्मोके