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श्रीमंवचनसार भाषाटीका । [ १७१
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अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेर्सि अरहंताणं) उन कैव. लज्ञान के धारी निर्दोष जीवन्मुक्त सशरीर अरहंत परमात्माओंके (काले ) अर्हत अवस्था में ( ठाणणिसेज्जविहारा ) ऊपर उठना अर्थात् खड़े होना, बैठना, विहार करना ( य धम्मुवदेसः ) और धर्मोपदेश. इतने व्यापार ( नियदयः ) स्वभावसे होते हैं । इन कार्यों करने केवली भगवानकी इच्छा नहीं प्रेरक होती है मात्र पुदुक कर्मका उदय प्रेरक होता है | ( इच्छीणं ) स्त्रियोंके भीतर( . मायाचारोव्य.) जैसे स्वभावसे कर्मके उदयके असर से मायाचार होता है । भाव यह है कि जैसे स्त्रियोंके स्त्रीवेदके उदयके कारणसे प्रयत्नके बिना भी मायाचार रहता है तैसे भगवान अर्हतोंके शुद्ध आत्मतत्वके विरोधी मोहके उदयसे होनेवाली इच्छापूर्वक उद्योग विना भी समवशरण में विहार आदिक होते हैं अथवा जैसे मेघों का एक स्थान से दूसरे स्थानपर जाना, ठहरना, गर्जना जलका वर्षणा आदि स्वभावसे होता है वैसे जानना । इससे यह सिद्ध हुआ कि मोह रागद्वेषके अभाव होते हुए विशेष क्रियाएं. भी बन्धकी कारण नहीं होती हैं ।.
भावार्थ- गाथा पहली गाथामें आचार्यने बताया था कि कर्म बन्धके कारण रागद्वेष मोह हैं। न तो ज्ञान है, न पिछले कर्मोंका उदय है । इसी बातको दृष्टान्त रूपसे इस गाथा में सिद्ध किया है। केवलीभगवान पूर्ण ज्ञानी हैं तथा राग द्वेष मोहसे सर्वथा शून्य हैं परन्तु उनके चार अघातिया कर्मोंकी बहुतसी प्रकृतियोंका उदय मौजूद है जिससे कर्मोंके असर से बहुतसी क्रियाएं, केवली भगवानके वचन और काय योगोंसे होती हैं तो.
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