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१७०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । करसता । इसलिये जितना नितना रागद्वेष होता है उतना उतना कोका बंध होता है। प्रमत्तसंयत नामके छठे गुणस्थानतक . बुद्धि पूर्वकं रागद्वेष होते हैं पश्चात ध्याता मुनिके अनुगपमें न . आने योग्य रागद्वेष दसवें सुक्ष्म लोभ गुणस्थान तक होते हैं, इसीसे वहीं तक जघन्य मध्यमादि स्थितिको लिये हुए कर्मोका बंध होता है। उसके आगे बंध नहीं होता है। यहीं तक सांपरायिक आश्रव है । मागे जहांतक योगोंका चलन है वहां तक ईर्यापथ मानवं होता है जो एक समयकी स्थिति धारक साता वेदनीय कर्मोको लाता है । ११, १२, तेरवे गुणस्थानों में बंध नाममात्रसा है। रागद्वेष मोहके अभावसे बंध नहीं है, ऐसा जानकर रागद्वेष मोहके दूर करनेका पुरुषार्थ करना चाहिये जिससे यह आत्मा अबन्ध अवस्थाको प्राप्त हो जावे। ' ___उत्थानिका-आगे कहते हैं कि केवली अरहंत भगवानों के तेरहवें सयोग गुणस्थानमें रागद्वेष आदि विभावोंका अभाव है इस लिये धर्मोपदेश विहार आदि भी वंधका कारण नहीं होता है। ठाणणिसेन्जविहारा, धम्मुवदेसोय णियदयो तेसिं। अरहताणं काले, मायाचारोग्य इच्छीणं ।। ४४ ॥
स्थाननिषद्याविहारा धर्मोपदेशश्च नियतयस्तेषाम् । .. अर्हतां काले मायाचार इव चीणाम् ॥ ४४ ॥
सामान्यार्थ-उन अहंत भगवानों के अहंत अवस्थामें उठना, बैठना, विहार तथा धर्मोपदेश स्त्रियों के मायाचारकी तरह स्वभावसे होते हैं।