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२७४] श्रीपवचनसार भापाटीका। देता है। जो पुण्यकर्म इष्ट पुद्गलोंको व इष्ट पुद्गल सहित ' जीवोंको आकर्षण भरलेता है । उनहींमें भाशक होकर यह संसारी प्राणी इंद्रियसुखका भोग कर लेता है । यह इन्द्रिय मुख पराधीन' है-पुण्य कर्मके आधीन है, इसलिये त्यागने योग्य है। अतीद्रिय सुख स्वाधीन है, इसलिये ग्रहण करने योग्य है । ऐसा जानकर शुद्धोपयोगकी भावना नित्य करनी योग्य है ।। ७४
उत्यानिशा-मागे आचार्य दिखाते हैं कि पूर्वगाथामें जिस इंद्रिय सुखको बतलाया है वह सुख निश्चयनपसे सुख नहीं है, दुःखरूप ही है। सोक्ख सहासिद्ध, पथि सुराणंपि लिखनुवदेसे । ते देहवेणा रमति विसयेस्सु रम्नेस्तु ॥ ७ ॥
सौख्यं स्वभावद्धिं नास्ति सुराणामपि सिद्धमुपदेशे। ते देहवेदनार्ता रमन्ते विषयेषु रम्येषु ॥ ७५ ॥
सामान्यार्थ-देवोंके भी आत्मस्वभावसे प्राप्त होनेवाला सुख नहीं व ऐसा परमागममें सिद्ध है। वे देव शरीकी वेदनांसे पाड़ित होकर रमणीक विषयोंमें रमन कर लेते हैं। .. ___अन्वय सहित विशेषार्थ:-मनुष्यादिकोंक मुखकी तो वात ही क्या है ( सुराणपि ) देवों व इन्द्रोंक भी ( हावसिद्ध सोक्खं ) स्वभावसे सिद्ध सुख अर्थात रागद्वेपादिकी उपा-' घिसे रहित चिदानन्दमई एक स्वभावरूप उपादानधारणसे उत्पन्न होनेवाला जो स्वाभाविक अतींद्रिय सुख है सो.( णत्थि) ही होता है ( उबदेसे सिद्धा) पद परमागम. देशमें उप