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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका। : [२७३. mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ___ अन्वय सहित विशेषार्थ:-(सुहेणजुत्तो आदा) नेसे निश्चय रत्नत्रयमई शुद्धोपयोगसे युक्त मात्मा मुक्त होकर अनन्त कालतक अतींद्रियमुखको प्राप्त करता है वैसे ही पूर्वसूत्रमें कहे हुए.शुभोपतोगमें परिणमन करता हुआ यह आत्मा तिरियो धा माणुमो यो या भूरो) तिथंच या मनुष्य या देव होकर (तावदि काल भनी अपनी आयुपर्यंत (यिविहं इंदियं जहादि) नाना प्रभा पन्द्रोंसे उत्पन्न सुखको पाता है। भालार्थ-शुभोपयोग भी अपराध है क्योंकि परमें सन्मुखता तूप इसीसे बन्धरूप है। जितना शुम भाव होता है उतना ही विशेष रसबाला साता वेदनीय, शुभनाम, उच्च गोत्र तथा शुभ आयुजा बन्ध हो जाता है। सम्यक्ती मीयोंकि सम्यककी भूमिकामे जो शुभ भाव होता है वह तो अतिशयकारी पुण्यका बंध' करता है-ऐसा सम्यक्ती जीव सिवाय कल्पवासी देवकी आयुशे अयदा देव पर्याय में यदि है तो सिवाय उत्तम मनुष्य पान और किसी आयुका बन्ध नहीं करता है । मिथ्या. दृष्टी जीव असो योग्य शुभोपयोगसे तियच, मनुष्य अथवा देव आयु तथा पन गतियों भोग योग्य पुण्य कर्म बांध लेते हैं। चार आयुमें नरक नायु अशुभ है क्योंकि वह आयु नारकियोंको सदा फ्लेशरूप भासती है जब कि तिथंच, मनुष्य या देवोंको अपनी२ मायु पदा क्लेशरूप नहीं भारती है। इन तीनोंको इन्द्रिय योग योग्य कुछ पदार्थ मिल जाते हैं जिसमें ये प्राणी रति करते हुए अपनी आयुको सुखदाई मानलेते हैं। शुभोपयोगमें नितनो कपाय अंश होता है वही पुण्य क्रमको बांध
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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