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श्रीप्रवचनसार भापाटीका:! [२८९. शुभोपयोगको तथा उसके फक इंद्रिय सुखको त्यागन योग्य बताया है, मुख्यतासे संकेत पुण्य कर्मकी तरफ है । पुण्यकर्म शुभोपयोगके द्वारा नानामकार साता वेदनीय, शुमनाम, शुभगोत्र तथा शुभ आयुके रूपमें बंधनाता है जिसके फल मनोहर साता रूप बाहरी सामग्री, मनोहर शरीरका रूप, माननीय कुल तथा अपनेको रुचनेवाली आयु प्राप्त होती है। भोगभूमिके तिथंच तथा मनुष्य पुण्य कर्मसे ही होते हैं । कर्मभूमिमें बहुतसे पशु तथा मनुष्य साताकारी सामग्री प्राप्तकर लेते हैं। भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी तथा फल्पवासी देवकि भो पुण्यफलसे बहुत मनोज्ञ देह देवी आदि सामग्री होती है । सर्वसे अधिक साताकी सामग्री देवेन्द्र तथा चक्रवर्ती नारायण प्रति नारायण आदि पदवीधारियोंके होती है। इनमें जो जीव सम्यग्दृप्टी ज्ञानी होते हैं उनके परिणामों में ये सामग्री यद्यपि चारित्रकी अपेक्षा कषायके उदयसे राग पैदा करने में निमित्त होती है तथापि श्रद्धानकी अपेक्षा कुछ विकार नहीं करती है। परन्तु जो मिथ्यादृष्टी बहिरात्मा आत्मज्ञान रहित जीव होते हैं उनके परिणामों में बाहरी सामग्री उसी तरह विषयकी तृष्णाको बढ़ा देती है जिस तरह इधनको पाकर अग्नि अपने स्वरूपको बढ़ा देती है । अन्तरन्ग मोह रागद्वेपकी वृद्धि करनेमें बाहरी पदार्थ निमित्त कारण हैं । यह क्षेत्रादि बाहरी परिग्रह जन सम्यदृष्टियों के भीतर भी रागादि भावोंके लगानेमें निमित्त कारण है तब मिथ्याष्टियोंकी तो बात ही क्या फहनी-बड़े २ क्षायिक सम्यक्ती तीर्थकर भी इस बाहरी परिग्रहके निमित्तसे चीतराग परिणतिको पूर्णपने नहीं कर सके। यही कारण है जिससे वे गृह