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श्रीमवचनार भाषाटीका ।
रके पुण्यकर्म होते हैं तथापि वे स्वर्णवाले देवताओं तकके जीवोंके यकी तृष्णाको पढ़ा कर देते हैं।
अन्वय सहित विशेषार्थ - ( नदि हि ) यद्यपि निश्चय करके ( परिणामसमुब्भवाणि) विकार रहित स्वसंवेदन भावसे क्षण शुभ परिणाम द्वारा पैदा होनेवाले (विविहाणि पुष्णाणि सति) अपने अनन्तमेव से नाना तरहके तथा पुण्य व पापसे रहित परमात्मासे विपरीत पुण्य कर्म होते हैं तथापि वे ( देवदताणं भीवाणं) देवता तत्रके नीवोंके भीतर (विसयत) विषयोंकी चाहको (जमयंति) पैदा कर देते हैं । भाव यह है कि ये. पुण्य कर्म. उन देवेन्द्र आदि बहिर्मुखी जीवोंके भीतर विषयकी तृष्णा बढ़ा
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देते हैं । जिन्होंने देखे सुने, अनुभए भोगोंकी इच्छारूप निदान Test यादि लेकर नाना प्रकारके मनोरथरूप विकल्प जालोंसे रहित जो परमसमाधि उससे टत्पन्न जो सुखामृतरूप तथा सर्व आत्मकि प्रदेशों में परम पाल्हादको पैदा करनेवाली एक आकार स्वरूप परम समदती भावमई और विषयोंकी इच्छारूप अग्निये पैदा होनेवाली जो परमदाह उसको शांत करनेवाली ऐसो अपने स्वरूप में तृप्तिको नहीं प्राप्त किया है । तात्पर्य यह है कि जो ऐसी विषयोंकी तृष्णा न होवे तो गंदे रुधिरमें जोकोंकी आशक्तिकी तरह कौन विषयभोगों में प्रवृत्ति करै ? | और जब वे बहिर्मुखी जीव प्रवृत्ति करते देखे जाते हैं तब अवश्य यह मालूम होता है कि पुण्यकर्म ही तृष्णाको पैदा कर देनेसे दुःखके कारण हैं।
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आषार्थ यहां आचार्यने पुण्यकर्मको व उसके कारण
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