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श्रीमवचनसार भाषाटीको। [२८७ इस बातपर लक्ष्य नहीं देते। मास्तवमें निसको सुख माना है वह उल्टा दुःखदाई हो जाता है। जैसे जोंक जंतु ,मज्ञानसे मलीन व हानिकारक रुधिरको आशक्त हो पान करती है, वह यह नहीं देखती है कि इससे मेरा नाश होगा व दुःख अधिक बढ़ेगा। ऐसे ही विषयाशक्त जीवोंकी दशा जाननी ।
इन्द्र या चक्रवर्ती आदि देव या खास मनुष्यों में शरीरमें विक्रिया करनेकी शक्ति होती है वे विपयदाहकी दाहमें अधिक इच्छावान होकर एक शरीरके अनेक रूप बना लेते व अपने देवी मादि परिवारकी संख्या विक्रिपाके द्वारा बढ़ा लेते हैं। वे अत्यन्त आशक्त हो जाते हैं तभी तृप्तिको न पाकर दुःखी ही रहते हैं। कहने का मतलब यह है विषयोंका सुख चक्रवर्ती आदिको भी तृप्त नहीं कर सका तो सामान्य मनुष्योंकी तो बात ही क्या है ! असलमें परमहित रूप आत्मीकसुम्व ही है। ऐसा जान इसी सुखके लिये निरंतर स्वानुभवका अम्यासे रखना योग्य है ॥७॥
उत्थाभिका-आगे कहते हैं कि पुण्यकर्म जीवोंमें विपयकी तृष्णाको पैदा कर देते हैं:जदि संति हि पुण्णाणिय परिणामसमुभवाणि
विविद्याणि जणति विमयताह जीवाणं देवदंताणं ॥८॥
यदि संति हि पुण्यानि च परिणामसमुद्भयानि विविधानि । जनयंत्ति विषयतृष्णा जीवानां देवतान्तानाम् || ७८ । सामान्यार्थ-यरि शुभ परिणामोंसे उत्पन्न नाना प्रक