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श्रीसार भापाठीका ।
वास, वेला, तेला, रसस्वाग, बटण्टी बाखरी, कठिन स्थानोंमें ध्यान करना व्यादि गुण विशष्ट हो तब ही शुद्धोपयोगके जगनेकी शक्ति होती है । जिसका मन ऐसा नशमें हो कि कठिन कठिन उपसर्ग पड़ने पर भी चलायमान न हो, शरीरका ममत्व जिसका बिलकुल हट गया होगा उसीके अपने स्वरूपमें दृढ़ता होना संभव हैं। नग्न स्वरूप रहना भी बड़ी भारी निस्पृहताका काम है । इसी लिये साधुको सर्व वस्त्रादि परिग्रह त्याग बालकके समान कषायभाव रहित रहना चाहिये। साधु चारित्रको पालनेवाला ही शुद्धम्पयोका अधिकारी होता है। तीसरा विशेषण वीतराग है। इस विशेषमें अंतरंग भावकी शुद्धताका विचार है। जिसका अंतरंग आत्माकी ओर प्रेमालु तथा जगत न शरीर व भोगोंमें उदासीन हो वही शुद्ध आत्म भावको वासक्ता है । निरंतर जात्म रखना विपास ही शुद्धोपयोगका अधिकारी हो सका है। चौथा विशेषण वह दिया है कि जिसकी इतनी कषायी मंदता हो गई है कि जिसके सांसारीक सुखके होते हुए हर्ष होता नहीं व दुःख व क्लेशके होने में दुःखभाव व आर्तसाव नहीं प्रगट होता है । जिनकी पूना की ा अथवा जिनकी निन्दा की जाय व खड़गका प्रहार किया
aौ भी हृपं व विपाद नहीं हो । जो तलवारकी चोटको भी फूलोंका हार मानते हों, जिन्होंने शरीरको अपने आत्मासे विक कुल मित्र अनुभव किया है वे ही भगतके परिणमनमें समताभाव
करता
हैं । इन विशेषों पर सहित साधु जत्र ध्यानका अभ्यास तब विकल्प भाव में रमते हुए निर्विकल्प भाव में आजाता जब तक उसमें जमा रहता है तब तक इस साधुके शुद्धोपयोग
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