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९६] श्रीप्रवचनसार भाषार्टीका। द्वितीय शुक्लध्यानके बलसे जैसे मेघपटल हटकर सूर्य प्रगट हो नाता है वैसे सर्व ज्ञानावरण हटकर ज्ञान सूर्य प्रगट होनाता है। तब ही सर्व चर मचरमई लोक हायपर रखे हुए आमलेके समान प्रकाशमान होनाता है । यही ज्ञान अनन्तकाल तक बना रहता है, क्योंकि कर्म भावरणका कारण मोह है सो केवली भगवानके बिलकुल नष्ट होगया है। केवली भगवान सर्वको सदा जानते रहते हैं इसी लिये क्रमवर्ती जाननेवालोंके जैसे आगेके जानने के लिये कामना होती है सो कामना फेवलीके नहीं होती है। जैसे छद्मस्थोंमें किसी बात के नाननेकी चाह होती है और वह चाह जब तक मिट नहीं जाती तबतक बड़ी आकुलता रहती है। - क्रमज्ञान होने हीसे केवली भगवान के किसी ज्ञेयके जाननेकी चिंता या आकुलता नहीं होती है । केवलज्ञानकी महिमा. वचन अगोचर है । ऐसा-निराकुलताका कारण केवलज्ञान मिनके पैदा होजाता है वे धन्य हैं-चे ही परमात्मा है। उन्होंने ही भवसागरसे पार पा लिया है। उनहीने भ्रम और विकल्पके मेघोंको दर भगा दिया है । वे ही आवागमनके चक्रसे बाहर होजाते हैं। ऐसा केवलज्ञान जिस शुद्धोपयोगकी भावनासे प्राप्त होता है उस ही शुद्धोपयोगकी निरंतर भावना करनी चाहिये ।
आगेकी उत्थानिका-आगे कहते हैं कि केवलज्ञानीको सर्व प्रत्यक्ष होता है यह बात अन्वयरूपसे पूर्व सुत्रमें कही गई। अब केवलज्ञानीको कोई बात भी परोक्ष नहीं है इसी पातको व्यतिरेकसे दृढ़ करते हैं