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भीप्रवचनसार भाषाटीका। [९७ पत्थि परोक्खं किंचिवि, समंत सव्वक्खगुण
समिंडरसा अक्खातीदस्स सदा, सयमेव हि णाणजादस्स ॥२२
नास्ति परोक्षं किञ्चिदपि समन्ततः सर्वाक्षगुणसमृद्धस्य । अक्षातीतस्य सदा स्वयमेव हि शानजातस्य ॥ २२ ॥
सामान्यार्थ-सर्व मात्माके प्रदेशोंमें सर्व इन्द्रियोंके गुणसे परिपूर्ण और अतीन्द्रिय तथा स्वयमेव ही केवलज्ञानको प्राप्त होनेवाले भगवान के सदा ही कोई भी विषय परोक्ष नहीं है।
अन्वय सहित विशेषार्थ-(समंत) समस्तपने अर्थात् सर्व आत्माके प्रदेशोंके द्वारा ( सव्वक्सगुणासमिद्धम्स ) सर्व इन्द्रियों के गुणोंसे परिपूर्ण अर्थात स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण शक्के जाननरूप जो इन्द्रियों के विषय उन सर्वक जाननेवी शक्ति सर्व आमाके प्रदेशों में जिसके प्राप्त होगई है ऐसे तथा (अक्खातीवस्ती अतीन्द्रिय स्वरूप अर्थात इंद्रियों के व्यापारसे रहित अथवा ज्ञान करके व्याप्त है आत्मा जिसका ऐसे निर्भल ज्ञानले परिपूर्ण और (सयमेव हि) स्वयमेव ही (गाणनादस्त) केवलज्ञानमे परिणमन करनेवाले अहंत भगवानके (किंचिवि) कुछ भी (परोक्ख) परोक्ष (णस्यि ) नहीं है। भाव यह है कि परमात्मा अतीन्द्रिय स्वभाव हैं। परमात्माके स्वभावसे विपरीत क्रम क्रमसे ज्ञान प्रवृत्ति करनेवाली इंद्रियह उनके द्वारा माननेसे जो उल्लंघन कर गए हैं अर्थात जिस परमात्गाके इन्द्रियों के द्वारा पराधीन ज्ञान नहीं है ऐसे परमात्मा तीन जगत और तीन कालवनी समस्त