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२७८] श्रीभवचनसार भाषाटीका। . परन्तु चारित्र यद्यपि मिथ्या नहीं है तथापि बहुत ही भल्प है। क्योंकि मप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंका उदय है । इन कार्योके उदयमें पूर्व संस्कारके वश जानते हुए भी व श्रृद्धान करते हुए भी कि ये इंद्रियसुख भतृप्तिकारी, बन्धकारक, तृप्णांको वृद्धि करनेवाला है वे विचारे इंद्रियमोगोंमें पड़ जाते हैं और भोग लेते हैं । यद्यपि वे अपनी निन्दा गर्दा करते रहते हैं तथापि आत्मबलकी व वीतरागताकी कमीसे इतने पुरुषार्थी नहीं होते तो
अपने श्रद्धान तथा ज्ञानके अनुकूल सदा वर्तन कर सक, परन्तु मिथ्यादृष्टीकी तरह पाकुजव्याकुल व तृषातुर नहीं होते हैं। चाह होनेपर उसकी शमनताके लिये योग्य विषयभोग कर लेते हैं। उनकी दशा उन जीवोंके समान होती है जिनको किसी नशा पीनेकी मादत पड़ गई थी-किसीके उपदेशसे उसके पीनेकी रुचि हट गई है । नौंमी त्याग. नहीं कर सके तब तक उस नशाको लाचारीसे लेते रहते हैं। जिनके अप्रत्याख्यानावरपीय कषाय शमन होगई परन्तु प्रत्याख्यानावरणीय कषाय उदयमें है उनके चाह अधिक घट जाती है परन्तु वे भी सर्वथा. इंद्रिय भोग छोड़ नहीं सक्के । अपनी निन्दा गहीं करते रहते व तत्वविचार व स्वात्ममननके अभ्याससे जब आत्मशक्ति बढ़ जाती तथा प्रत्याख्यानावरणीय कषाय भी दमन होनाती तब वे विषयभोग सर्वथा त्यागकर साधु होकर नितेन्द्रिय रहते हुए ज्ञान ध्यानका . मनन करते हैं। इससे नीचेकी अवस्थाके दो गुणस्थानों में जो विषय सुखका भोग है वह उनके ज्ञान व श्रद्धानका अपराध नहीं है किन्तु उनके कषायके उदयका अपराध है सो. भी त्यागने