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श्रीभवचनसार भाषाटका। [२७७ सुख शांति का लाभ होका नहीं । टीकाकारने भो दृष्टांत दिया है कि मूर्ख पाणी एक मधुकी बूंदके लोभसे आगे आनेवाली मापत्तिको मूल जाता है सो बिलकुल सच है-मरण निकट है। परलोकमें क्या होगा इस सत्र विचारको अपने लिये भूलकर भाप रातदिन विषयभोगमें पड़ा रहता है। उसकी दशा उस अज्ञानीकी तरह होती है जिसका वर्णन स्वामी पूज्यपादभीने इष्टोपदेशमै किया है:
विपत्तिमात्मनो मूढः परेषामिव नेक्षते । दह्यमानमृगाकीर्णवनांतरतरुस्थवत् ॥ १४ ॥
भाव यह है कि मुर्ख अज्ञानी जैसे दूसरों के लिये आपत्तियोंका आना देखता है वैसा अपने लिये नहीं देखता है । जैसे जलते हुए वनके भीतर वृक्षके ऊपर बैठा हुमा कोई मनुष्य मृगोंका भागना व जलना देखता हुआ भी आप निश्चित बैठा रहे अपना जलना होनेवाला है इसको न देखे । बहिरात्मा अज्ञानी जीवोंकी यही दशा है । वे विचारे निनानंदको न पाकर इसी विषयसुखमें लुब्धायमान रहते हैं । यहां पर यह शंका होगी कि सराग सम्यग्दृष्टी जीव फिर विषयभोग क्यों करते हैं क्योंकि अविरत सम्यम्हष्टीको भी स्वात्मानुभव हो जाता है वह अतींद्रिय आनन्दका लाम कर लेता है फिर भी गृहस्थ अवस्थामें पांचों इन्द्रियोंके भोगों में क्यों जाते हैं क्यों नहीं सर्व प्रपंचनाल छोड़कर निजानंदका भोग करते हैं ? इस शंकाका समाधान यह है कि अविरत सम्यग्दृष्टियोंके अनन्तानुबन्धी कषाय तथा मिथ्यात्व फर्म उदयमें नहीं हैं इसीसे उनके यथावत् शृद्वान और ज्ञान वो हो गया है