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२७६ ] श्रीमवचनसार भाषाटीका। रूपी हाथी सिरपर खड़ा हो और वह मधुकी बूंदके समान इंद्रिय विषयके सुखका भोगता हुभा अपनेको सुखी माने तो उसकी अज्ञानता है । विषयसुख दुःखका घर है । ऐसा सांसारिक सुख त्यागने योग्य हैं जब कि मोक्षका सुख आपत्ति रहित स्वाधीन तथा अविनाशी है इसलिये ग्रहण करने योग्य है, यह तात्पर्य है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बतादिया है कि सच्चा सुख आत्माका निज स्वभाव है निस सुखके लिये किसी परपदार्थकी वांछा नहीं होती है । न वहां कोई आकुलता, चिंता व तृषाकी दाह होती है। वह सुख निन आत्माके अनुभवसे प्राप्त होता है । इसके सामने यदि इंद्रियजनित सुखको देखा नावे तो वह दुःखरूप ही प्रतीत होगा । जिनके मिथ्यात्व और कषायका दमन होगया है ऐसे वीतराग सम्यग्दृष्टी- जीव इसी मानन्दका निरंतर अनुभव करते हैं उनको कभी भी इंद्रिय विषय.. भोगकी चाहकी दाह सताती नहीं है। किन्तु जो मिथ्यादृष्टी मज्ञानी बहिरात्मा हैं चाहे वे देवगतिमें भी क्यों न हो तथा जिनको स्वात्मानुभवके लाभके विना उस अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद नहीं विदित है वे विचारे निरंतर इन इंद्रियों के विषयभोगकी ज्वालासे जला करते हैं और अनेक आपत्तियोंको सहकर भी क्षणिक विषयसुखको भोगना चाहते हैं। वे बराबर तृषावान होकर बड़े उद्यमसे विषयभोगकी सामग्रीको पाकर उसे भोगते हैं परन्तु तृषाको - बुझानेकी अपेक्षा, उल्टी बढ़ा लेते हैं। जिससे उनकी चाहकी आकुलता कभी मिटती नहीं वे असंख्यात वर्षांकी आयु रखते हुए भी दुःखी ही बने रहते हैं-उनकी मात्माको