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श्रीप्रवचनसार भाषाका । [१८५
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- मृत भविष्यकालकी पर्याय सहित सर्व ही विचित्र और अनेक नातिके पदार्थको एक ही समय में जानता है वह ज्ञान क्षायिक कहा गया है।
'अन्वय सहित विशेषार्थ - (नं) जो ज्ञान (समतदः) सर्व प्रकार से अथवा सर्वे. व्यात्माके प्रदेशोंसे ( विचित्तविसमं ) नांना भेदरूप अनेक जातिके मूर्त अमूर्त चेतन अचेतन आदि (सव्वं अत्थं) सर्वं पदार्थोको (तक्कालियम् ) वर्तमानकाल संबंधी तथा (इतर) भूत भविष्य का सम्बन्धी पर्यायों सहित (जुगवं ) एक
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समय में व एक साथ ( जाणदि ) जानता है । ( तं गाणं ) उस ज्ञानको (खाइयं) क्षायिक ं (भणियं) कहा है । अभेद नयसे वही सर्वज्ञका स्वरूप है इसलिये वही ग्रहण करने योग्य अनन्त, सुख आदि अनन्त गुणका आधारभूत सर्व तरहसे प्राप्त करने योग्य है इस रूपसे भावना करनी चाहिये । यह तात्पर्य है ।
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भावार्थ - इस गाथा में आचार्य ने केवलज्ञानकी महिमाको प्रगट किया हैं और यह बतलाया है कि ज्ञानका पूर्ण और स्वाभाबिक कार्य इसी अवस्थामें झलकता है । जब सर्व ज्ञानावरणीय कर्मका क्षय हो जाता हैं तब ही केवलज्ञान प्रगट होता है। फिर यह हो नहीं सकता कि इस ज्ञान से बाहर कोई भी ज्ञेय रह जांबे । इसीको स्पष्ट करने के लिये कहा हैं कि जगत में पदार्थ समूह अनंत हैं और वे सब एक जातिके व एक प्रकारके नहीं हैं किंतु भिन्नर जाति व भिन्न१ प्रकारके हैं । विसम शब्दसे यह द्योतित किया है. कि. जगतमात्र चेतन स्वरूप ही नहीं है, न मात्र, अचेतन स्वरूप है, किंतु चेतन अचेतन स्वरूप है । जितने जीव हैं वे चेतन