________________
AwammmmmmmmwamAAImannr
३६६ ] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। इस पथके ज्ञानतत्व नासके महा अधिकारका
सारांश। आचार्य महाराजने ग्रन्थके आदिमें ही यह प्रतिज्ञा की है कि मैं साम्यभावरूप शुद्धोपयोगका आश्रय लेता हूं. क्योंकि उसीसे निर्वाणका लाभ होता है इसी बातको इस अधिकारमें अच्छी तरह सिद्ध कर दिया है। निश्चय रत्नत्रयकी एकता मोक्षमार्ग है। जहां ऐसा परिणाम है उसीको वीतराग चारित्र या मोह क्षोभ रहित साम्यभाव या शुद्ध उपयोग कहते हैं। यह आत्मा परिणामी है, इसके तीन प्रकारके परिणाम हो सक्ते हैं-शुद्धोपयोग, शुभोपयोग और अशुगोपयोग । शुद्धोपयोग मोक्षप्ताधक है । मंदकपायरूप, अत् भक्ति रूप, दान पूना वैयावृत्त्य परोपकाररूपभाव शुभोपयोग है, जिससे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है । और हिंसा, असत्य, तीव्र विषयानुराग, आर्तपरिणाम, अपकार आदि तीव्र कवाय रूप परिणाम अशुभोपयोग है-यह नर्क या तिवच या कुमानुषके जन्ममें प्राप्त करानेवाला है, अतः यह सर्वया त्यागने योग्य है । तथा शुभोपयोग, शुद्धोपयोगकै लाभके लिये तथा शुद्धोपयोग साक्षात् ग्रहण करने योग्य है । आत्माका निम आनन्द जो निराकुल तथा स्वाधीन है, शुद्धोपयोगके द्वारा ही प्राप्त होता है । इसी शुद्धोपयोगके द्वारा यह आत्मा स्वयं अहंत परमात्मा होजाता है । ऐसे केवलज्ञानीके क्षुधा तृषा आदिकी बाघा नही होती है और न इच्छापूर्वक वचन तथा कायकी क्रियाएं होती हैं, क्योंकि उनके मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय हो