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२३२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । भी माल्माका ज्ञान होता है आत्मज्ञानके लिये दोनों ज्ञान बराबर हैं। अथवा दूमरी पातनिका यह है कि जैसे केवलज्ञान प्रमाण रूप है जैसे ही केवलज्ञान द्वारा दिखलाए हुए पदार्थों को प्रकाश करनेवाला श्रुतज्ञान भी परोक्ष प्रमाण है । इस तरह दो पातनिका ओंको मनमें रख आगेका सुत्र कहते हैंजो हिरेण विजाणदि, अप्पाणं जाणगं सहाण। तं सुयकेवलिमिलिणो, भणंति लोगप्पदीवयरा ॥३३
यो हि श्रुतेन विजानात्यात्मानं ज्ञाय स्वभावेन । तुं श्रुतकेवलिनभूपयो भणति लोकप्रदीपकराः ॥३३॥
सामान्यार्थ-जो कोई निश्चयसे श्रुतज्ञानके द्वारा स्वभाबसे ज्ञायक आत्माको अच्छी तरह जानता है उसको लोकके प्रकाश करनेवाले ऋषिगण श्रुवकेवली कहते हैं। ... अन्वय सहित विशेषार्थ-(जो) जो कोई पुरुष (हि) निश्पसे (सुदेण ) निर्भिधार स्वसंवेदनरूप भाव श्रुत परिणामके द्वारा ( सहावेण ) समस्त विभावोंसे रहित स्वभावसे ही (नाणगं) ज्ञायन अर्थात केवलज्ञानरूर (अप्पाण) निम आत्माको ( विना णदि ) विशेष करके जानता है अर्थात् विषयों के सुखसे विलक्षण अपने शुद्धात्माकी भावनासे पैदा होनेवाले परमानन्दमई एक लक्ष
को रखनेवाले सुख रसके मास्वादसे अनुभव करता है। (लोगप्पदीवयरा ) लोडके प्रकाश करनेवाले (इसिणो ) ऋषि (तं ) उस महायोगीन्द्रको ( सुयकेवलिं) श्रुतकेवली (भणति) कहते हैं । इसका विस्तार यह है कि एक समयमें परिणमन ,करनेवाले सर्व चैतन्यशाली 'केवलज्ञानके द्वारा' आदि अंत रहितं.