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श्रीप्रवचनसार भापाटीका ।
हीणो जदि सो आदा, तण्णाणरूपेदणं ण जाणादि । अधिगोवा णाणादो, णाणेण दिणा कहं णादि ॥१६॥
ज्ञानप्रमाणनात्मा, न भवति यस्येह तत्व आत्मा | हीनो वा अधिको वा, ज्ञानाद् भवति अवमेव ॥ २४ ॥ हो, यदि स आत्मा, तत् ज्ञानमचेतनं न जानाति ! अघिको या ज्ञानान्, ज्ञानेन विना रूथं जानाति ॥ २५ ॥ सामान्यार्थ - इस जगत में जिसका यह मत है कि ज्ञान प्रमाण आत्मा नहीं है उसके मत में निश्चयसे यह आत्मा ज्ञानसे नया ज्ञान से अधिक हो जायगा । यदि वह आत्मा ज्ञानसे छोटा हो तब ज्ञान अचेतन होकर कुछ न जान सकेगा और जो आत्मा ज्ञानसे अधिक होगा वह ज्ञानके बिना कैसे जान सकेगा ?
अन्वय सहित विशेषार्थ - (इइ) इस जगत में (जस) जिस वादीके मत्तमें ( आदा ) आत्मा (गाणपमाणं) ज्ञान प्रमाण (ण हवदि) नहीं होता है ( तहस ) उसके मत में (सो आदा) वह आत्मा (णाणदो) ज्ञान गुणसे (होणो वा) या तो हीन अर्थात छोटा (अधिगो वा ) या अधिक अर्थात् बड़ा (हवदि) हो जाता है (ध्रुवम् एव) यह निश्चय ही है ।
(जदि) यदि (सो आदा) वह आत्मा होणो ) हीन या छोटा होता है तब (तं णाणं) सो ज्ञान ( अवेदणं ) चेतन रहित होता हुआ ( ण जाणादि ) नहीं जानता है अर्थात् यदि वह आत्मा ज्ञानसे कम या छोटा माना नाम तब जैसे व्यग्निके बिना उष्णं गुण ठंडा हो जायगा और अपने जलाने के कामको न कर सकेगा