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श्रीप्रवचनसार भापाटीका। [१०५ जैसे आत्माके विना जितना ज्ञानगुण बचेगा वह ज्ञानगुण माना माश्रयभूत चैतन्यमई द्रव्यके विना निस आत्मद्रव्यके साथ ज्ञानगुणका समवाय सम्बन्ध है, अचेतन या गडरूप होकर कुछ भी नहीं जान सकेगा (वा णाणादो) अथवा ज्ञानसे ( अधिगो) अधिक या बडा आत्माको माने तब (गाणेण विणा) ज्ञानके विना (कह) कैसे (णादि) जान सक्ता है अर्थात् यदि यह माने कि ज्ञान गुणसे आत्मा बड़ा है तब जितना आत्मा ज्ञानसे बड़ा है उतना आत्मा जैसे रणगुणके विना अग्नि ठंडी होकर अपने जलानेके कामको नहीं कर सकी है तेसे ज्ञानगुणके अभावमें अचेतन होता हुआ किस तरह कुछ जान सकेगा अर्थात कुछ भी न जान सकेगा। यहां यह भाव है कि जो कोई आत्माको अंगूठेकी गांठके घराबर या श्यामाक तंदुकके बराबर या वडके बीमके बरावर आदि रूपसे मानते हैं उनका निपेध किया गया तथा जो कोई सात समुद्घातके बिना आत्माको शरीरममाणसे अधिक मानते हैं उनका भी निराकरण किया गया।
भावार्थ-इन दो गाथाओंमें आत्माको और उसके ज्ञान गुणको सम प्रमाण सिद्ध किया गया है। द्रव्य और गुणका प्रदेशोंकी अपेक्षा एक क्षेत्रावगाह समवाय या तादात्म्य सम्बन्ध होता है। जहां २ द्रव्य वहां २ उसके गुण, जहां २ गुण वहां २ उसके द्रव्य । वास्तवमें द्रव्य गुणोंके एक समुदायको कहते हैं जिसमें इरएक गुण एक दुसरेमें व्यापक होता है। प्रदेशत्वनामा गुण जितने प्रदेश जिस द्रव्यके रखता है अर्थात् जो द्रव्य जितने आकाशको व्यापकर रहता है उतने ही में सर्व गुण व्यापक रहते