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२२४] श्रीभवचनसार भाषाटीका। ..दित हुमा यह जीव ( रागं व दोस वा पय्या) विकार रहित
शुदात्मासे विपरीत इण्ट अनिप्ट इंद्रियोंके विषयों में हर्ष विषाद रूप चारित्र मोहनीय नामके रागद्वेष भावको पाकर (खुम्भदि) क्षोभ रहित भात्मतत्वसे विपरीत क्षोभके कारण अपने, स्वरूपसे चलकर उस्या वर्तन करता है । इस कथनसे यह बतलाया गया कि दर्शन मोहका एक और चारित्र मोहके भेद रागद्वेप दो इन तीन भेदरूप मोह है।
भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने संसारके कारण भावको प्रगट किया है । संसारका कारण कर्मबंध है । सो कर्मबंध मोहके द्वारा होता है । मोहके मूल दो भेद हैं । दर्शन गोह और चारित्र मोह । श्रद्धानमें रटे व संशयरूप व वेविचाररूप भावको दर्शन मोह कहते हैं । यह जीव मात्मा और अनात्मा द्रव्योंमें व उनके गुणोंमें व उनको स्वाभाविक तथा वैभाविक पर्यायोंमें जो संशय रूप व अन्यथा व अज्ञानरूप भाव रखता है, रहो दर्शन मोह है। इस मोहके कारण वस्तु कुकी कुछ मालूम होती है । श्री सर्वज्ञ वीतराग अरहंतने जैसा जीव और अजीवका स्वरूप बताया हैं वैसा श्रद्धानर्ने न आना दर्शन मोह है । भगवानने सच्चा सुख मात्माका स्वभाव बताया है इसको न विश्वासकर मोहसे मैला प्राणी इंद्रियों के द्वारा भोगे जानेवाले सुखको सच्चा सुख मान बैठता है। इस ही झूठो माननके कारण अपनी रुचिसे जिन इष्ट. पदार्थोंसे सुख कल्पना करता है उनमें राग और जिनसे दुःख कल्पना करता है, उनमें देष कर लेता है। इस रागद्वेवको चारित्र मोह कहते हैं । रागद्वेष चार तरहका होता है। एक