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७६ श्रीमवचनमार भाषाटीका । द्वारा कोई फल फूल बनस्पति नहीं हो सक्ती और न बनास्पति जलानेकी लकड़ी, द्वारके कपाट, चौको, कुरसी, पलंग आदि बन सक्के । यह नगत परिणमनशील पदार्थसमूहके कारण ही नाना 'विचित्र दृश्योंको दिखला रहा है। मूलमें देखें तो इस लोकमें केवल छः द्रव्य हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । इनमें चार तो सदा उदासीन रूपसे निष्क्रिय रहते हैं कुछ भी हलन चलन करके काम नहीं करते और न प्रेरणा करते हैं। किन्तु जीव और पुद्गक क्रियावान हैं। दो ही द्रव्य इस सप्तारमें चलते फिरते हैं तथा परस्पर संयोगसे मनेक संयुक्त अवस्थाओंको भी दिखाते हैं । इनकी क्रियाएं व इसके कार्य प्रगट हैं। इनहीसे यह भारी तीनलोक बनता बिगड़ता रहता है। संसारी नीव पुद्गलोंको लेकर उनकी अनेक प्रकार रचना बनने में कारण होते हैं। तथा पुदल संहारी जीवोंके निमित्तसे अथवा अन्य पुदलों के निमिपसे अनेक प्रकार अवस्थामोंको पैदा करते हैं । संसारी आत्मा
ओंके द्रव्य कोका बंध स्वयं हो कार्माण वर्गणाओं के कर्म रूर परिणमनसे होता है यद्यपि इस परिणमनमें समारी मात्माके योग
और उपयोग कारण हैं। जगतमें कुछ काम आत्माके योग उपयोगकी प्रेरणासे होते हैं जैसे मकान, आभूषण, वर्तन, पुस्तक, वस्त्र मादिका बनाना । कुछ काम ऐसे हैं जिनको पुद्गल पासर निमित्त बन किया करते हैं जैसे पानीका माफ बनना, माफमा मेषरूप होना, मेघोंका गजरना, विनलीका रमकना, नदीमें बाढ़ आना, गावोंका वह जाना, मिट्टीका नमना, पर्वतों का टूटना, नर्फका गलना मादि। यदि परिणमनशक्ति द्रव्यमें न हो तो कोई काम नहीं होसके। जब