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श्रीभवचनसार भाषाटीका। [१३ मोंकी प्राप्ति कहते हैं जिनके लाभके विना दर्शन मोहनीय कर्मका कभी क्षय नहीं होता है । इस तरह मात्मज्ञान के प्रतापसे मोहका क्षय होजाता है । मोहके उपशम होनेका भी यही प्रकार है। जब मोहका उपशम होता है तब उपशम सम्यक्त और जब मोहका नाश होता है तब क्षायिक सम्यक्त उत्पन्न होता है । अनुभव दो तरहका है एक भेदरूप दुसरा अभेदरूप । इस हारमें इतने मोती हैं इनकी ऐसी सफेदी है व ऐसी मामा है ऐसा अनुभव भेद रूप है। भव कि एक हार मात्रका विना विकल्पके अनुभव करना अभेदरूप है । तैसे ही आत्माके गुण ऐसे हैं उसमें पर्याय ऐसी हैं इस तरह भेदरूप अनुभव है और गुण पर्यायों का विकल्प न करके एकाकार अभेदरूप आत्मद्रव्यके सन्मुख होकर लय होना अभेदरूप अनुभव है। यहां का कर्म, ध्याता ध्येयका विकल्प 'नहीं रहता है । इसीको स्वानुभव दशा कहते हैं । जब आत्मा मोह कर्मके उदयको बलात्कार छोड़ देता है और अपनेमें ही ठहर नाता है तब आश्रय रहित मोह नष्ट होजाता है । इस तरह मोहके जीतनेका उपाय है । ऐसा ही उपाय श्री अमृतचंद्र भाचायेने समयसार कलशमें कहा है:भूतं भान्तमभूतमेव रभसा निर्भिध धं सुधीर्यधन्तः किलकोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोह हठात् ।
आत्मात्मानुभवैकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्त ध्रुवं, नियं कर्मकलङ्कपङ्कविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥ १२ ॥
भाव यह है कि बुद्धिमान आत्मा यदि भूत, भविष्य, वर्तमान सर्वका ही बंधको एकदम छेद करके और मोहको बलपूर्वक